पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/४०

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वैदेही-वनवास

सरित-गर्भ में पड़ा बिम्ब प्रासाद-निचय का।
कूल-विराजित विटप-राजि छाया अभिनय का ।।
दृश्य बड़ा था रम्य था महा-मंजु दिखाता ।
लहरों में लहरा लहरा था मुग्ध बनाता ॥१३॥

उपवन के अति-उच्च एक मंडप में विलसी।
मूर्ति-युगल इन दृश्यों के देखे थी विकसी।
इनमें से थे एक दिवाकर कुल के मण्डन । ।
श्याम गात आजानु- बाहु सरसीरुह - लोचन ॥१४॥

मर्यादा के धाम शील - सौजन्य - धुरंधर ।'
दशरथ - नन्दन राम परम - रमणीय - कलेवर ।।
थी दूसरी विदेह - नन्दिनी लोक - ललामा।
सुकृति-स्वरूपा सती विपुल-मंजुल-गुण-धामा ।।१५।।

वे बैठी पति साथ देखती थी सरि - लीला।
था वदनांबुज विकच वृत्ति थी संयम-शीला ।।
सरस मधुर वचनों के मोती कभी पिरोतीं।
कभी प्रभात - विभूति विलोक प्रफुल्लित होतीं ॥१६॥

बोले रघुकुल - तिलक प्रिये प्रातः - छबि प्यारी।
है नितान्त - कमनीय लोक - अनुरंजनकारी॥
प्रकृति-मृदुल-तम-भाव-निचय से हो हो लसिता ।
दिनमणि-कोमल-कान्ति व्याज से है सुविकसिता ॥१७॥