पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/४४

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वैदेही-वनवास

जो मयंक नभतल को था वहु कान्त बनाता ।
वसुंधरा पर सरस-सुधा जो था बरसाता ॥
जो रजनी को लोक-रंजिनी है कर पाता।
वही तेज-हत हो अव है डूबता दिखाता ॥३३॥

जो सरयू इस समय सरस-तम है दिखलाती।
उठा उठा कर ललित लहर जो है ललचाती ॥
शान्त, धीर, गति जिसकी है मृदुता सिखलाती ।
ज्योतिमयी बन जो है अन्तर - ज्योति जगाती ॥३४॥

लावन का कर संग वही पातक करती है।
कर निमग्न बहु जीवों का जीवन हरती है ।।
डुबा बहुत से सदन, गिराकर तट-विटपी को।
करती है जल-मग्न शस्य-श्यामला मही को ॥३५॥

कल मैंने था जिन फूलों को फूला देखा।
जिनकी छबि पर मधुप-निकर को भूला देखा।
प्रफुल्लता जिनकी थी बहु उत्फुल्ल बनाती।
जिनकी मंजुल-महक मुदित मन को कर पाती ॥३६॥

उनमे से कुछ धूल में पड़े हैं दिखलाते ।
कुछ हैं कुम्हला गये और कुछ हैं कुम्हलाते ।।
कितने हैं छबि-हीन वने नुचते हैं कितने।
कितने हैं उतने न कान्त पहले थे जितने ॥३७॥