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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/४५

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प्रथम सर्ग

सुन्दरता में कौन कर सका समता जिनकी।
उन्हें मिली है आयु एक दिन या दो दिन की ।।
फूलों सा उत्फुल्ल कौन भव मे दिखलाया।
किन्तु उन्होंने कितना लघु-जीवन है पाया ॥३८॥

स्वर्णपुरी का दहन आज भी भूल न पाया।
बड़ा भयंकर-दृश्य उस समय था दिखलाया ।।
निरपराध बालक-विलाप अवला का क्रंदन ।
विवश-वृद्ध-वृद्धाओं का व्याकुल बन रोदन ॥३९।।

रोगी-जन की हाय हाय आहे कृश-जन की।
जलते जन की त्राहि त्राहि कातरता मन की ।।
ज्वाला से घिर गये व्यक्तियों का चिल्लाना।
अवलोके गृह-दाह गृही का थर्रा जाना ॥४०॥

भस्म हो गये प्रिय स्वजनों का तन अवलोके ।
उनकी दुर्गति का वर्णन करना रो रो के।
बहुत कलपना उसका जो था वारि न पाता।
जब होता है याद चित व्यथित है हो जाता ।।४१।।

समर-समय की महालोक संहारक लीला ।
रण भू का पर्वत समान ऊँचा शव-टीला ॥
वहती चारों ओर रुधिर की खर-तर-धारा ।
धरा कॅपा कर बजता हाहाकार नगारा ॥४२॥