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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/४७

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प्रथम सर्ग

कलह मूल हूँ शान्ति इसी से मैं खोती हूँ।
मर्माहत मैं इसीलिये बहुधा होती हूँ।
जो पापिनी-प्रवृत्ति न लंका-पति की होती।
क्यों बढ़ता भूभार मनुजता कैसे रोती ।।४८।।

अच्छा होता भली-वृत्ति ही जो भव पाता।
मंगल होता सदा अमंगल मुख न दिखाता ।।
सबका होता भला फले फूले सब होते।
हँसते मिलते लोग दिखाते कही न रोते ॥४९।।

होता सुख का राज, कही दुख लेश न होता ।
हित रत रह, कोई न बीज अनहित का बोता ।
पाकर बुरी अशान्ति गरलता से छुटकारा ।
बहती भव में शान्ति-सुधा की सुन्दर धारा ॥५०॥

हो जाता दुर्भाव दूर सद्भाव सरसता।
उमड़ उमड़ आनन्द जलद सव ओर बरसता ॥
होता अवगुण मग्न गुण पयोनिधि लहराता।
गर्जन सुन कर दोष निकट आते थर्राता ॥५१॥

फूली रहती सदा मनुजता की फुलवारी ।
होती उसकी सरस सुरभि त्रिभुवन की प्यारी ॥
किन्तु कहूँ क्या है विडम्बना विधि की न्यारी ।
इतना कह कर खिन्न हो गई जनक दुलारी ॥५२॥