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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/४६

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वैदेही-वनवास

क्रंदन, कोलाहल, बहु आहों की भरमारे ।
आहत जन की लोक प्रकंपित करी पुकारे ॥
कहाँ भूल पाई वे तो हैं भूल न पाती।
स्मृति उनकी है आज भी मुझे बहुत सताती ॥४३॥

आह ! सती सिरधरी प्रमीला का बहु क्रंदन।
उसकी बहु व्याकुलता उसका हृदयस्पंदन ।।
मेघनाद शव सहित चिता पर उसका चढ़ना।
पति प्राणा का प्रेम पंथ में आगे बढ़ना ॥४४॥

कुछ क्षण में उस स्वर्ग-सुन्दरी का जल जाना।
मिट्टी में अपना महान सौदर्य्य मिलाना ।।
बड़ी दुःख-दायिनी मर्म-वेधी-बाते हैं।
जिनको कहते खड़े रोंगटे हो जाते हैं ॥४५॥

पति परायणा थी वह क्यों जीवित रह पाती।
पति चरणों मे हुई अर्पिता पति की थाती ।। ।
धन्य भाग्य, जो उसने अपना जन्म बनाया।
सत्य-प्रेम-पथ-पथिका बन वहु गौरव पाया ॥४६॥

व्यथा यही है पड़ी सती क्यों दुख के पाले ।
पड़े प्रेम - मय उर में कैसे कुत्सित छाले ॥
आह ! भाग्य कैसे उस पति प्राणा का फूटा।
मरने पर भी जिससे पति पद-कंज न छूटा ॥४७॥