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वैदेही-वनवास

जो ऑधी उठ कर है कुछ उत्पात मचाती।
धूल उड़ा डालियाँ तोड़ है विटप गिराती॥ ।
तो है जीवनप्रद समीर का शोधन करती।
नई हितकरी भूति धरातल में है भरती ॥७३॥

जहाँ लाभ प्रद अंश अधिक पाया जाता है।
थोड़ी क्षति का ध्यान वहाँ कब हो पाता है।
जहाँ देश हित प्रश्न सामने आ जाता है।
लाखों शिर अर्पित हो कटता दिखलाता है ।।७४।।

जाति मुक्ति के लिये आत्म-बलि दी जाती है ।
परम अमंगल क्रिया पुण्य कृति कहलाती है।
इस रहस्य को बुध पुंगव जो समझ न पाते।
तो प्रलयंकर कभी नहीं शंकर कहलाते ॥७५॥

सृष्टि या प्रकृति कृति को, बहुधा कह कर माया।
कुछ विबुधों ने है गुण-दोप-मयी बतलाया ।।
इस विचार से है चित् शक्ति कलंकित होती।
बहु विदिता निज सर्व शक्तिमत्ता है खोती ॥७६॥

किन्तु इस विपय पर अब मैं कुछ नहीं कहूँगा।
अधिक विवेचन के प्रवाह में नहीं बहूँगा ।।
फिर तुम हुई प्रफुल्ल हुआ मेरा मनभाया ।
प्रिये कहाँ तुमने ऐसा कोमल चित पाया ।।७७।।