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प्रथम सर्ग

सब को सुख हो कभी नहीं कोई दुख पाये।
सबका होवे भला किसी पर बला न आये।
कब यह संभव है पर है कल्पना निराली।
है इसमें रस भरा सुधा है इसमें ढाली ॥७८।।

दोहा


इतना कह रघुवंश-मणि, दिखा अतुल-अनुराग ।
सदन सिधारे सिय सहित, तज बहु-विलसित वाग।।७९।।