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वैदेही-वनवास

वहाँ पर एक रजक हो क्रुद्ध ।
रोक कर गृह प्रवेश का द्वार ॥
त्रिया को कड़ी दृष्टि से देख ।
पूछता था यह बारम्बार ॥८॥

बिताई गई कहाँ पर रात्रि ।
लगा कर लोक-लाज को लात ।।
पापिनी कुल में लगा कलंक ।
यहाँ क्यों आई हुए प्रभात ॥९॥

चली जा हो आँखों से दूर।
अब यहाँ क्या है तेरा काम ।।
कर रही है तू भारी भूल ।
जो समझती है मुझको राम ॥१०॥

रहीं जो पर-गृह में पट्मास ।
हुई है उनकी उन्हें प्रतीति ॥
वड़ों की बड़ी बात है किन्तु ।
कलंकित करती है यह नीति ॥११॥

प्रभो बतलाई थी यह बात ।
विनय मैंने की थी वहु वार ।।
नही माना जाता है ठीक ।
जनकजा पुनर्ग्रहण व्यापार ॥१२॥