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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/५५

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द्वितीय सर्ग

कला कृति इतनी थी कमनीय ।
दिखाते थे सब चित्र सजीव ॥
भाव की यथातथ्यता देख ।
दृष्टि होती थी मुग्ध अतीव ॥३॥

अंग-भंगी, आकृति की व्यक्ति ।
चित्र के चित्रण की थी पूर्ति ॥
ललित तम कर की खिंची लकीर ।
बनी थी दिव्य-भूति की मूर्ति ॥४॥

देखते हुए मुग्धकर - चिन्न ।
सदन में राम रहे थे घूम ।।
चाह थी चित्रकार मिल जाय ।
हाथ तो उसके लेवे चूम ॥५॥

इसी अवसर पर आया एक-
गुप्तचर वहाँ विकंपित - गात ।।
विनत हो चन्दन कर कर जोड़।
कही दुख से उसने यह बात ॥६॥

प्रभो यह सेवक प्रातःकाल ।
घूमता फिरता चारों ओर ।।
उस जगह पहुंचा जिसको लोग।
इस नगर का कहते हैं छोर ॥७॥