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वैदेही-वनवास
राम ने बनकर बहु - गंभीर ।
सुनी दुर्मुख के मुख की बात ।।
फिर उसे देकर गमन निदेश ।
सोचने लगे वन वहुत शान्त ॥१८॥
बात क्या है ? क्यों यह अविवेक? ।
जनकजा पर भी यह आक्षेप ।।
उस सती पर जो हो अकलंक ।
क्या बुरा है न पंक - निक्षेप ॥१९॥
निकलते ही मुख से यह बात ।
पड़ गई एक चित्र पर दृष्टि ।
देखते ही जिसके तत्काल ।
हगों में हुई सुधा की वृष्टि ॥२०॥
दारु का लगा हुआ अम्बार ।
परम-पावक-सय बन हो लाल ।
जल रहा था धू धू ध्वनि साथ ।
ज्वालमाला से हो विकराल ॥२१॥
एक स्वर्गीय - सुन्दरी स्वच्छ--
पूत - तम - बसन किये परिधान ॥
कर रही थी उसमें सुप्रवेश ।
कमला- मुख था उत्फुल्ल महान ।।२२।।