पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/५९

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२३
द्वितीय सर्ग

परम - देदीप्यमान हो अंग।
बन गये थे वहु - तेज - निधान ।।
हगों से निकल ज्योति का पुंज ।
बनाता था पावक को म्लान ।।२३।।

सामने खड़ा रिक्ष कपि यूथ ।
कर रहा था बहु जय जय कार ।।
गगन मे विलसे विवुध विमान ।
रहे बरसाते सुमन अपार ॥२४॥

बात कहते अंगारक पुंज ।
बन गये विकच कुसुम उपमान ?
लसी दिखलाई उस पर सीय ।
कमल पर कमलासना समान ॥२५॥

देखते रहे राम यह दृश्य ।
कुछ समय तक हो हो उद्ग्रीव ॥
फिर लगे कहने अपने आप ।
क्या न यह कृति है दिव्य अतीव ॥२६।।

मैं कभी हुआ नही संदिग्ध ।
हुआ किस काल में अविश्वास ।।
भरा है प्रिया चित्त मे प्रेम ।
हृदय मे है सत्यता निवास ॥२७॥