पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२५
द्वितीय सर्ग

नही घबरा पाती थी कौन ।
देख फल दल के भाजन रिक्त ।
बनाती थी न किसे उद्विग्न ।
टपकती कुटी धरा जल सिक्त ॥३३॥

भूल अपना पथ का अवसाद।
बदन को बना विकच जलजात ।।
पास आ व्यजन डुलाती कौन ।
देख कर स्वेद-सिक्त मम गात ॥३४॥

हमारे सुख का मुख अवलोक ।
बना किसको वन सुर - उद्यान ।।
कुसुम कंटक, चन्दन, तप - ताप ।
प्रभंजन मलय - समीर समान ॥३५॥

कहाँ तुम और कहाँ वनवास ।
यदि कभी कहता चले प्रसंग ।।
तो विहँस कहती त्याग सकी न ।
चन्द्रिका चन्द्र देव का संग ॥३६॥

दिखाया किसने अपना त्याग ।
लगा लंका विभवों को लात ॥
सहे किसने धारण कर धीर ।
दानवों के अगणित - उत्पात ॥३७॥