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वैदेही-वनवास

द्वेप परवश होकर ही लोग।
नहीं करते हैं निन्दावाद ।।
वृथा दंभी जन भी कर दंभ ।
सुनाते हैं अप्रिय सम्बाद ।।९॥

दूसरों की रुचि को अवलोक ।
कही जाती है कितनी बात ।।
कही पर गतानुगतिक प्रवृत्ति ।
निरर्थक करती है उत्पात ॥१०॥

लोक - आराधन है नृप - धर्म ।
किन्तु इसका यह आगय है न ।
सुनी जाये उनकी भी बात ।
जो बला ला पाते हैं चैन ॥११॥

प्रजा के सकल-वास्तविक-स्वत्त्व ।
व्यक्तिगत उसके सब-अधिकार ॥
उसे है प्राप्त सुखी है सर्व।
सुकृति से कर वैभव - विस्तार ॥१२॥

कहीं है कलह न वैर विरोध ।
कहाँ पर है धन धरा विवाद ।।
तिरस्कृत है कलुपित चितवृत्ति ।
त्यक्त है प्रबल - प्रपंच • प्रमाद ।।१३।।