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वैदेही-वनवास
न रक्षित था उनसे धन धाम ।
न लोगों का आचार विचार ॥
न ललनाकुल का सहज सतीत्त्व ।
न मानवता का वर व्यवहार ॥३९॥
एक कर में थी ज्वलित मशाल ।
दूसरे कर में थी करवाल ॥
एक करता नगरों का दाह ।
दूसरा करता भू को लाल ॥४०॥
किये पग-लेहन, हो, कर-बद्ध ।
कुजन का होता था प्रतिपाल ॥
सुजन पर बिना किये अपराध ।
वलाये दी जाती थी डाल ॥४१॥
अधमता का उड़ता था केतु ।
सदाशयता पाती थी शूल ॥
सदाचारी की खिंचती खाल ।
कदाचारी पर चढ़ते फूल ॥४२॥
राज्य में पूरित था आतंक ।
गला कर्त्तन था प्रातः - कृत्य ।।
काल वन होता था सर्वत्र ।
प्रजा प्रीड़न का ताण्डव नृत्य ॥४३॥