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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/७७

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तृतीय सर्ग

केकयाधिप ने यह अवलोक ।
शान्ति के नाना किये प्रयत्न ।
किन्तु वे असफल रहे सदैव ।
लुटे उनके भी अनुपम - रत्न ॥४४॥

इसलिये हुए वे वहुत क्रुद्ध ।
और पकड़ी कठोर तलवार ।।
हुआ उसका भीपण परिणाम ।
बहुत ही अधिक लोक सहार ॥४५।।

छिन गये राज्य हुए भयभीत ।
वचे गधों का सस्थान ।।
बन गया है पाञ्चाल प्रदेश ।
और यह अन्तर्वेद महान ।।४६।।

इस समर का संचालन सूत्र ।
हाथ में मेरे था अतएव ।।
आप से उसका बहु सम्पर्क ।
मानता है उनका अहमेव ।।४७।।

अतः यह मेरा है सन्देह ।
इस अमूलक जन - रव में गुप्त ।।
हाथ उन सव का भी है क्योंकि ।
कव हुई हिसा-वृत्ति विलुप्त ॥४८॥