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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/८७

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तृतीय सर्ग

किसी सम्भावित की अपकीर्ति ।
है रजनि - रंजन - अंक - कलक ।।
किन्तु है बुध - सम्मत यह उक्ति ।
कब भला धुला पंक से पंक ।।९४।।

जनकजा मे है दानव - द्रोह ।
और मैं उनकी बात मान ।
कराया करता हूँ अद्यापि ।
लोक - संहार कृतान्त समान ॥९५।।

यह कथन है सर्वथा असत्य । .
और है परम श्रवण - कटु-बात ॥
किन्तु उसको करता है पुष्ट ।
विपुल गंधर्वो पर पविपात ।।९६।।

पठन कर लोकाराधन - मत्र ।
करूँगा मैं इसका प्रतिकार !!
साधकर जनहित - साधन सूत्र ।
करूँगा घर घर शान्ति - प्रसार ।।९७।।

वन्धु - गण के विचार विज्ञात-
हो गये, सुनी उक्तियाँ सर्व ॥
प्राप्त कर साम - नीति से सिद्धि ।
बनेगा पावन जीवन - पर्व ॥९८॥