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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/९१

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चतुर्थ सर्ग

वन प्रफुल्ल फल फूल दान में हो निरत ।
मंद मंद दोलित हो, वे थी विलसती ।।
प्रात' - कालिक सरस - पवन से हो सुखित ।
भू पर मंजुल मुक्तावलि थीं बरसती ।।८॥

विहग - वृन्द कर गान कान्त - तम - कंठ से ।
विरच विरच कर विपुल-विमोहक टोलियाँ।
रहे बनाते मुग्ध दिखा तन की छटा ।
बोल बोल कर बड़ी अनूठी बोलियाँ॥९॥

काक कुटिलता वहाँ न था करता कभी।
कॉ कॉ रव कर था न कान को फोड़ता।
पहुँच वहाँ के शान्त - वात - आवरण मे।
हिंसक खग भी हिसकता था छोड़ता ॥१०॥

नाच नाच कर मोर दिखा नीलम - जटित ।
अपने मजुल - तम पंखों की माधुरी ॥
खेल रहे थे गरल - रहित - अहि - वृन्द से।
वजा बजा कर पूत - वृत्ति की वॉसुरी ।।११।।

मरकत - मणि-निभ अपनी उत्तम - कान्ति से।
हरित - तृणावलि थी हृदयो को मोहती ।।
प्रातः - कालिक किरण - सालिका - सूत्र मे।
ओस - विन्दु की मुक्तावलि थी पोहती ॥१२॥