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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/९४

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वैदेही-वनवास

इतना कह कर हंस - वंश - अवतंस ने।
दुर्मुख की सव बाते गुरु से कथन की।
पुनः सुनाई भ्रातृ - वृन्द की उक्तियाँ।
जो हित-पट पर मति-मृदु-कर से थीं अॅकी ॥२३॥

तदुपरान्त यह कहा दमन वांछित नही ।
साम - नीति अवलम्बनीय है अब मुझे ॥
त्याग करूँ तब बड़े से बड़ा क्यों न मैं।
अंगीकृत है लोकाराधन जब मुझे ॥२४॥

हैं विदेहजा मूल लोक - अपवाद की।
तो कर दूं मैं उन्हें न क्यों स्थानान्तरित ।।
यद्यपि यह है बड़ी मर्म - वेधी - कथा।
तथा व्यथा है महती - निर्ममता - भरित ॥२५॥

किन्तु कसौटी है विपत्ति मनु - सूनु की।
स्वयं कष्ट सह भव - हित - साधन श्रेय है।
आपत्काल, महत्त्व - परीक्षा - काल है।
संकट मे धृति धर्म प्राणता ध्येय है ॥२६॥

ध्वंस नगर हों, लुटे लोग, उजड़े सदन ।
गले कट, उर छिदे, महा - उत्पात हो।
वृथा मर्म - यातना विपुल - जनता सहे।
बाल वृद्ध वनिता पर वज्र - निपात हो ॥२७।।