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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/९५

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चतुर्थ सर्ग

इन बातों से तो अब उत्तम है। यही।
यदि वनती है वात, स्वयं मैं सब सहूँ ।।
हो प्रियतमा वियोग, प्रिया व्यथिता बने।
तो भी जन-हित देख अविचलित-चित रहूँ ॥२८॥

प्रश्न यही है कहाँ उन्हें मैं भेज दूं।
जहाँ शान्त उनका दुखमय जीवन रहे ।।
जहाँ मिले वह वल जिसके अवलंब से।
मर्मान्तिक बहु - वेदन जाते हैं सहे ॥२९॥

आप कृपा कर क्या बतलायेगे मुझे।
वह शुचि - थल जो सब प्रकार उपयुक्त हो॥
जहाँ बसी हो शान्ति लसी हो दिव्यता।
जो हो भूति - निकेतन भीति - विमुक्त हो ॥३०॥

कभी व्यथित हो कभी वारि हग में भरे।
कभी हृदय के उद्वेगों का कर दमन ।
वाते रघुकुल - रवि की गुरुवर ने सुनी ।
कभी धीर गंभीर नितान्त - अधीर वन ॥३१।।

कभी मलिन - तम मुख - मण्डल था दीखता ।
उर मे वहते थे अशान्ति सोते कभी ।।
कभी संकुचित होता भाल विशाल था ।
युगल - नयन विस्फारित होते थे कभी ॥३२॥