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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/९८

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वैदेही-वनवास

रजकण तक को जो करती है दिव्य तम ।
वह दिनकर की विश्व - व्यापिनी - दिव्यता ॥
हो पायेगी बुरी न अंधों के बके ।
कहे उलूकों के न बनेगी निन्दिता ।।४३।।

ज्योतिमयी की परम - समुज्ज्वल ज्योति को।
नहीं कलंकित कर पायेगी कालिमा ॥
मलिना होगी किसी मलिनता से नहीं।
ऊपादेवी की लोकोत्तर - लालिमा ॥४४॥

जो सुकीर्ति जन - जन - मानस में है लसी।
जिसके द्वारा धरा हुई है धवलिता ।।
सिता - समा जो है दिगंत में व्यापिता।
क्यों होगी वह खल कुत्सा से कलुषिता ।।४५।।

जो हलचल लोकापवाद आधार से।
है उत्पन्न हुई, दुरन्त है हो रही ।
उसका उन्मूलन प्रधान - कर्त्तव्य है।
किन्तु आप को दमन - नीति प्रिय है नहीं ॥४६॥

यद्यपि इतनी राजशक्ति है बलवती ।
कर देगी उसका विनाश वह शीघ्र तम ।।
पर यह लोकाराधन - व्रत - प्रतिकूल है।
अतः इष्ट है शान्ति से शमन लोक भ्रम ॥४७॥