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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/९९

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चतुर्थ सर्ग

सामनीति का मैं विरोध कैसे करूँ।
राजनीति को वह करती है गौरवित ।।
लोकाराधन ही प्रधान नृप - धर्म है।
किन्तु आपका व्रत विलोक मैं हूँ चकित ॥४८॥

त्याग आपका है उदात्त धृति धन्य है।
लोकोत्तर है आपकी सहनशीलता ॥
है अपूर्व आदर्श लोकहित का जनक ।
है महान भवदीय नीति - मर्मज्ञता ॥४९॥

आप पुरुष हैं नृप व्रत पालन निरत हैं।
पर होवेगी क्या पति प्राणा की दशा ।।
आह । क्यों सहेगी वह कोमल हृदय पर ।
आपके विरह की लगती निर्मम - कशा ॥५०॥

जो हो पर पथ आपका अतुलनीय है।
लोकाराधन की उदार - तम - नीति है।
आत्मत्याग का बड़ा उच्च उपयोग है।
प्रजा - पुंज की उसमे भरी प्रतीति है ॥५१॥

आर्य - जाति की यह चिरकालिक है प्रथा ।
गर्भवती प्रिय - पत्नी को प्रायः नृपति ।।
कुलपति पावन - आश्रम मे हैं भेजते ।
हो जिससे सब - मंगल, शिशु हो शुद्धमति ॥५२॥