21. कोसलेश प्रसेनजित्
महाराज प्रसेनजित् कोमल गद्दे पर बैठे थे। दो यवनी दासियां पीछे खड़ी चंवर ढल रही थीं, उनका शरीर अत्यन्त गौरवर्ण था। आयु पैंसठ से भी अधिक हो गई थी। उनके खिचड़ी बाल बीच में चीरकर द्विफालबद्ध किए गए थे। बड़ी-बड़ी मूंछे यत्न से संवारी गई थीं और वे कान तक फैल रही थीं। वे कोमल फूलदार कौशेय पहने थे और कण्ठ, भुजा और मणिबंध पर बहुमूल्य रत्नाभरण पहने थे। इस समय उनका मन प्रसन्न नहीं था, वे कुछ उद्विग्न-से बैठे थे। कंचुकी ने राजपुत्र विदूडभ के आने की सूचना दी।
महाराज ने संकेत से आने को कहा।
विदूडभ ने बिना प्रणाम किए, आते ही पूछा—"महाराज ने मुझे स्मरण किया था!"
"किया था।"
"किसलिए?"
"परामर्श के लिए।"
"इसके लिए महाराज के सचिव और आचार्य माण्डव्य क्या यथेष्ट नहीं हैं?"
"किन्तु मैं तुम्हें कुछ परामर्श देना चाहता हूं विदूडभ!"
"मुझे! महाराज के परामर्श की मुझे आवश्यकता ही नहीं है।" राजपुत्र ने घृणा व्यक्त करते हुए कहा।
महाराज प्रसेनजित् गम्भीर बने रहे। उन्होंने कहा—"किन्तु रोगी की इच्छा से औषध नहीं दी जाती राजपुत्र!"
"तो मैं रोगी और आप वैद्य हैं महाराज?"
"ऐसा ही है। यौवन, अधिकार और अविवेक ने तुम्हें धृष्ट कर दिया है विदूडभ!"
"परन्तु महाराज को उचित है कि वे धृष्टता का अवसर न दें।"
"तुम कोसलपति से बात कर रहे हो विदूडभ!"
"आप कोसल के भावी अधिपति से बात कर रहे हैं महाराज!"
क्षण-भर स्तब्ध रहकर महाराज ने मृदु कण्ठ से कहा—"पुत्र, विचार करके देखो, तुम्हें क्या ऐसा अविवेकी होना चाहिए? मैं कहता हूं—तुमने मेरी आज्ञा बिना शाक्यों पर सैन्य क्यों भेजी है?"
"मैं कपिलवस्तु को निःशाक्य करूंगा, यह मेरा प्रण है।"
"किसलिए? सुनूं तो।"
"आपके पाप के लिए महाराज!"
"मेरा पाप, धृष्ट लड़के! तू सावधानी से बोल!"
"मुझे सावधान करने की कोई आवश्यकता नहीं है महाराज, मैं आपके पाप के कलंक को शाक्यों के गर्म रक्त से धोऊंगा।"