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पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/११०

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प्रसेनजित् ने आश्चर्यचकित हो आगन्तुक की ओर देखकर कहा—

"यह किसका उपकार मुझ पर हुआ?"

"कुशीनारा के मल्ल बंधुल का।" महाक्षत्रप कौशल्य हिरण्यनाभ ने पीछे से आगे बढ़कर कहा।

प्रसेनजित् ने दोनों हाथ फैलाकर कहा—"क्या मेरा मित्र बन्धुल मल्ल आया है?"

"महाराज की जय हो! मुझे हर्ष है महाराज, मैं ठीक समय पर आ पहुंचा।" बन्धुल ने आगे बढ़कर कहा।

"निश्चय। नहीं तो यह दासीपुत्र मेरा हनन कर चुका था। क्षत्रप हिरण्यनाभ, इसे बन्दी कर लो।"

बन्धुल ने कहा—"महाराज प्रसन्न हों! इस बार राजपुत्र को क्षमा कर दिया जाए। मैं समझता हूं, वे अपने अविवेक को समझ लेंगे।"

राजा ने कहा—"कोसल में तेरा स्वागत है मित्र बन्धुल, विदूडभ के विषय में तेरा ही वचन रहे।"

"कृतार्थ हुआ महाराज, तो राजपुत्र, अब तुम स्वतन्त्र हो मित्र।" विदूडभ चुपचाप चला गया।

बन्धुल ने कहा—"महाराज को याद होगा, तक्षशिला में आपने इच्छा की थी कि यदि आप राजा हुए तो मुझे सेनापति बनना होगा।"

"याद क्यों नहीं है मित्र, मैंने तो तुझे बहुत लेख लिखे, तेरी कोसल को भी ज़रूरत है और मुझे भी। कौशाम्बीपति उदयन की धृष्टता तूने नहीं सुनी, गांधारराज कलिंगदत्त ने अपनी अनिन्द्य सुन्दरी पुत्री कलिंगसेना मुझे दी है, तो उदयन उसी बहाने श्रावस्ती पर चढ़ने की तैयारी कर रहा है। इधर मगध सम्राट् बिम्बसार पुराने सम्बन्ध की परवाह न करके कोसल को हड़पने के लिए कोसल पर अभियान कर रहे हैं। अन्य शत्रु भी कम नहीं हैं। बन्धुल मित्र, कोसल को तेरी कितनी आवश्यकता है और मुझे भी, वह तो तूने देख ही ली।"

"तो मैं आ गया हूं महाराज, पर मेरी कुछ शर्ते हैं।"

"कह मित्र, मैं स्वीकार करूंगा।"

"मैं मल्ल वंश में हूं।"

"समझ गया, तुझे कभी मल्लों पर अभियान न करना होगा। मैं राज्य-विस्तार नहीं चाहता हूं। जो है वही रखना चाहता हूं। मित्र, कह और भी कुछ तेरा प्रिय कर सकता हूं।"

"बस महाराज।"

"तो कौशल्य हिरण्यनाभ, मित्र बन्धुल का सब प्रबन्ध कर तो। जब तक हम साकेत में हैं, बन्धुल सुख से रहें।"

"ऐसा ही होगा महाराज!"

"और श्रावस्ती जाकर तुझे मैं सेनापति के पद पर अभिषिक्त करूंगा। तेरा कल्याण हो। जा, अब विश्राम कर।"