पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/१११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

22. माण्डव्य उपरिचर

महाराज प्रसेनजित् दीर्घिका के शुभ्र मर्मर सोपान पर बैठे थे। स्वच्छ जल में रंग-बिरंगी मछलियां क्रीड़ा कर रही थीं। प्रभात का सुखद समीर नये पत्तों से लदे वृक्षों को मन्द-मन्द हिला रहा था। बड़ा ही मनोहर वसन्त का प्रभात था वह। महाराज की आंखें उनींदी और शरीर अलस हो रहा था। वे चुपचाप बैठे जल की तरंगों को देख रहे थे।

एक वेत्रवती ने निवेदन किया—"आचार्य माण्डव्य उपरिचर आए हैं।"

"यहीं ले आ उन्हें।"

माण्डव्य आचार्य की आयु का कोई पता ही नहीं लगता था। उनका चेहरा भावहीन, नेत्र अतिरिक्त भ्रमित–से, भौंहें बहुत बड़ी-बड़ी, कान नीचे तक लटके हुए, शरीर रोमश और रंग अति काला था। उनकी कमर पर लाल रंग का कौशेय था। ऊपर की पीठ और वक्ष बिलकुल खुला था। मस्तक पर रक्तचन्दन का लेप और पैरों में मृगचर्म का उपानह था। उनकी दन्तावली सुदृढ़ थी। नेत्रों की कोर से कभी-कभी चमक निकलती थी। चेहरा श्मश्रु से भरा था। उनका शरीर लोह-निर्मित मालूम होता था। कण्ठ में स्वच्छ जनेऊ था। हाथ में एक मोटा दण्ड था। चलने का ढंग मतवालों जैसा था।

उन्होंने कर्कश वाणी से हाथ उठाकर महाराज को आशीर्वाद दिया।

"आचार्य, मैं बड़ी देर से आपकी प्रतीक्षा कर रहा हूं।"

"किसलिए महाराज, रात को सुखद नींद आती है न?"

"आचार्य, रात की बात क्या कहते हैं, जीवन अब घिस-सा गया है। सोचता हूं, कुछ परलोक-चिन्तन करूं।"

"महाराज की बातें! लोक-परलोक, सुख-दुख, पाप-पुण्य, आचार-दुराचार, देव-देवता, ये सब तो बाल कल्पनाएं हैं राजन्! क्या आप भी उस मूर्ख प्रवाहण की मुक्ति, पुनर्जन्म और आत्मा के मायाजाल में फंसे हैं?"

"परन्तु जीवन तो मिथ्या नहीं है आचार्य।"

"जीवन सत्य है। तो फिर नकद छोड़कर उधार के पीछे क्यों दौड़ते हैं?"

"अरे आचार्य! नकद सामने रहते जो टुकुर-टुकुर ताकना पड़ता है सो?"

आचार्य हंसकर वहीं शिलाखण्ड पर बैठ गए। उन्होंने कहा—"क्या यहां तक महाराज!"

"सत्य ही आचार्य, नग्न रूप और यौवन भी मेरे गलित काम को नहीं जगाता, पुराण द्राक्षा की सुवास अब नेत्रों में रक्त आभा नहीं प्रकट कर सकती, कभी उस के रंग में जगत् रंगीला दीखता था।"

"तब महाराज सिद्ध योगी हो गए प्रतीत होते हैं।"

"योगी को फिर देश-विदेश से लाई सुन्दरियों का क्या लाभ है?"