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पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/११८

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24. नियुक्त

हर्षदेव विक्षिप्तावस्था में देश-विदेश की खाक छानता हुआ वीतिभय नगरी में जा पहुंचा। उन दिनों इस नगर में उद्रायण नाम के राजा का राज्य था। हर्षदेव की दशा अत्यन्त शोचनीय हो गई थी। उसके वस्त्र गन्दे और फटकर चिथड़े हो गए थे। सिर और दाढ़ी के बाल बढ़कर परस्पर उलझ गए थे। उसकी दशा एक पागल भिखारी के समान थी। वैशाली को विध्वंस करके अम्बपाली को हस्तगत करने की तीव्र प्रतिहिंसा उसके मन और नेत्रों में व्याप्त थी, परन्तु इस महत्कार्य को करने योग्य उसमें न तो चरित्र-बल ही था, न योग्यता। वह यों ही अस्त-व्यस्त भटक रहा था।

भूख और थकान से जर्जर हर्षदेव ने नगर के बाहर स्थित एक चैत्य में आकर विश्राम किया। सघन वृक्षों की शीतल छाया में लेटते ही उसे गहरी नींद आ गई। उसी समय एक वृद्धा स्त्री ने उसे देखा। वह एक ऐसे ही अनाथ पुरुष की खोज में थी। हर्षदेव को अनाथ जानकर वह बहुत प्रसन्न हुई; जब उसने देखा कि वह स्वस्थ, सुन्दर और तरुण है तो वह और भी सन्तुष्ट हुई। और सन्तोष की दृष्टि से उसे देखती वहीं बैठ गई, तथा उसके जागने की प्रतीक्षा करने लगी।

थोड़ी देर बाद हर्षदेव ने जागकर वृद्धा को अपने सम्मुख बैठे देखा और कहा—"मातः, क्या मैं तेरा कुछ प्रिय कर सकता हूं?"

"कृतपुण्य होकर जात।"

"कृतपुण्य कौन है?"

"वह मेरा इकलौता बेटा था।"

"वह कहां है?"

"वह अपने तीन जहाज़ भरकर ताम्रपर्णी की ओर सार्थवाही जनों के साथ गया था। अब सार्थवाही जनों ने लौटकर बताया है कि मार्ग में उसके जहाज़ तूफान में फंसकर डूब गए। उन्हीं के साथ मेरा वह प्रिय पुत्र भी डूब गया। जात, वह इस नगर के प्रसिद्ध सेट्ठि धनावह का इकलौता बेटा था और मैं भाग्यहीना उसकी माता हूं।"

"दुःख है माता, पर यदि मेरे पुत्र बनने से तेरा कुछ उपकार होता हो, तो मैं तेरा पुत्र हूं।"

"उपकार बहुत हो सकता है पुत्र! मैं पुत्रहीना स्त्री हूं, यदि राज्य के सेवकों को यह खबर लग जाय, तो वे मेरा सब धन राजकोष में उठा ले जाएंगे। इसीलिए पुत्र, तू मेरा पुत्र बनकर मुझे कृतार्थ कर।"

"किन्तु माता, मैं कृतसंकल्प हूं।"

"कोई हानि नहीं, तू मेरा मनोरथ पूर्ण करके अपना संकल्प पूरा कर लेना।"

"तेरा मनोरथ क्या है, माता?"