"क्यों नहीं, यदि उचित और आवश्यक हुआ तो!"
"और तुम?"
"मैं भी। झूठ से मूर्ख भी भय खाते हैं, जो उसका उपयोग नहीं जानते, जैसे शस्त्र से अनाड़ी डरते हैं।"
"तो तुम्हारी राय में झूठ भी एक शस्त्र है!"
"बड़ा प्रभावशाली।"
इस बार कुण्डनी हंसी; उसने कहा—"तुम्हारा तर्क तो काटने के योग्य नहीं है, परन्तु पिता ने सत्य कहा था।"
"नहीं, नहीं कुण्डनी, आर्या मातंगी ने कहा था—तुम्हारी एक भगिनी है पर वह कुण्डनी नहीं है।"
"सोम, शत्रु को छोड़कर मैं प्रत्येक पुरुष की भगिनी हूं।"
"इसका क्या अर्थ है? यह तो गूढ़ बात है।"
"मेरे पिता जैसे गूढ़ पुरुष हैं, वैसे ही उनकी पुत्री भी। तुम उनको समझने की चेष्टा न करो।"
"किन्तु मैं कुण्डनी...।"
सोम की बात मुंह ही में रही, एक तीर सनसनाता हुआ कुण्डनी के कान के पास से निकल गया।
कुण्डनी ने चीत्कार करके कहा—"सावधान! शत्रु निकट है।"
परन्तु इससे प्रथम ही सोम ने अपना भारी बर्खा सामने की झाड़ी को लक्ष्य करके फेंका। झाड़ी हिली और एक क्रन्दन सुनाई दिया। सोम खड्ग खींच झाड़ी के पास पहुंचा। कुण्डनी और पांचों भटों ने भी खड्ग खींच लिए—सबने झाड़ी को घेर लिया।
उन्होंने देख, बर्खा एक पुरुष की पसलियों में पार होकर उसके फेफड़े में अटक गया है। जो आहत हुआ है उसका रंग काजल-सा काला है, खोपड़ी छोटी और चपटी है, कद नाटा है, नंगा शरीर है, केवल कमर में एक चर्म बंधा है, उस पर स्वर्ण की एक करधनी है, जिस पर कोई खास चिह्न है। उसके घाव और मुख से खून बह रहा था और वह जल्दी-जल्दी सांस ले रहा था। उसके साथ वैसा ही एक दूसरा युवक था। उसने एक भीत मुद्रा से पृथ्वी पर लेटकर सोम को प्रणिपात किया, फिर दोनों हाथ उठाकर प्राण-भिक्षा मांगने लगा।
सोम ने उसे संकेत से अभय दिया। फिर संकेत ही से कहा—" क्या वह असुर है?"
असुर ने स्वीकार किया। इस पर सोम ने आसुरी भाषा में कहा—"वह अपने साथी को देखे—मर गया या जीवित है।"
युवक अपनी ही भाषा में बोलते सुनकर आश्वस्त हुआ। फिर उसने साथी को झाड़ी से निकालकर चित्त लिटा दिया। सोम ने देखा—जीवित है, पर बच नहीं सकता। उसने एक सैनिक को उसके मुंह में जल डालने को कहा—सैनिक ने जल डाला। पर इसी समय एक हिचकी के साथ उसके प्राण निकल गए।
सोम ने अब दूसरे तरुण को अच्छी तरह देखा, उसकी करधनी ठोस सोने की थी तथा उसकी आंखों में खास तरह की चमक थी। सोमप्रभ ने उससे पूछा—"क्या वह