पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/१३०

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की परवाह नहीं।"

"ओह, फिर वही शारीरिक बल की बात कह रहे हो, सोम। याद रखो, यहां बुद्धि बल से विजय पानी होगी। मस्तिष्क को ठण्डा रखो और निर्भय आगे बढ़ो। देखें तो उस असुर का राजवैभव!"

इतने में ही बहुत-से वाद्य एक साथ बजने लगे। तुरही, भेरी, मुरज, मृदंग और ढोल। दोनों ने आंख उठाकर देखा, सामने लाल पत्थर का एक प्रशस्त दुर्ग है। उसके गोखों से असुर योद्धा सिर निकाल-निकालकर बन्दियों को देख रहे हैं। गढ़ के फाटक बहुत मोटी लकड़ी के हैं। उन्हें रस्सियों से खींचकर खोला जा रहा है। उसी के ऊपरी खण्ड में ये सब वाद्य बज रहे थे। फाटक पर बहुत-से असुर तरुण नंगे शरीर, कमर में खाल लपेटे, स्वर्ण करधानी पहने, विशाल भाले हाथ में लिए खड़े थे। उनके कज्जलगिरि-जैसे शरीर शीशे के समान चमक रहे थे।

कुण्डनी ने धीरे-से सोमप्रभ से कहा—"तुमने आसुरी भाषा कहां सीखी सोम!"

"मैंने गान्धार में अभ्यास किया था। देवासुर संग्राम में भी बहुत अवसर मिला। वहां असुर बन्दियों से मैं आसुरी भाषा में ही बोलता था।"

"तो सोम, उच्च स्वर से इन असुरों ही के समान असुरराज शम्बर का जय-जयकार करो!"

सोम ने यही किया। जय-जयकार का असुरों पर अच्छा प्रभाव पड़ा। उन्होंने हाथ उठाकर जय-जयकार में सहयोग दिया।

दुर्ग में प्रविष्ट होकर वे पत्थर की बड़ी सड़क पर कुछ देर चलकर एक बड़े दालान में पहुंचे। यह दालान आधा पहाड़ में गुफा की भांति खोदकर और आधा पकी ईंटों से चिनकर बनाया गया था। उसके बीचोंबीच पत्थर का एक ऊंचा सिंहासन रखा था। उस पर एक बाघम्बर बिछा था, जिसमें बाघ का विकराल मुख खुला दीख रहा था और उसकी बड़ी-बड़ी दाढ़ें चमक रही थीं। उसी पर शम्बर पद्मासन से बैठा था। उसका शरीर बहुत विशाल था। रंग अत्यन्त काला। अवस्था का पता नहीं चलता था, परन्तु अंग अत्यन्त दृढ़ था। कण्ठ में मुक्ताओं और मूंगों की कई छोटी-बड़ी मालाएं पड़ी थीं। भुजबन्द में स्वर्णमण्डित सूअर के दांत मढ़े थे। सिर खुला था। उसके बाल कुछ- कुछ लाल, घुंघराले और खूब घने थे। उन पर स्वर्णपट्ट में जड़े किसी पशु के दो पैने सींग मढ़े हुए थे। मुंह भारी और रुआबदार था। उस पर खिचड़ी गलमुच्छा था। मस्तक पर रक्तचन्दन का लेप था। सम्पूर्ण वक्ष स्वर्ण की ढाल जैसे किसी आभूषण से छिपा था। उसके सिंहासन के दोनों ओर दो विशाल बर्छ गड़े थे। सिंहासन के पीछे चार तरुणी असुरकुमारिकाएं खड़ी मोरछल और चामर डुला रही थीं। एक मद्यपात्र लिए निकट खड़ी थी। दो के हाथ में गन्धदीप थे, जिसमें से सुगन्धित धुआं उठ रहा था। सिंहासन के सामने वेदी थी, जिसमें वैसी ही बैंगनी और नीली आंच जल रही थी। सिंहासन के पीछे पत्थर की दीवार पर किसी अतिभयानक विकराल जन्तु की तस्वीर खुदी हुई थी। शम्बर के हाथों में भी मोटे-मोटे स्वर्ण के कड़े थे तथा हाथ में एक मोटा स्वर्णदण्ड था, जो ठोस मालूम होता था। उसकी आंखें गहरी, काली और चितवन बड़ी तेज़ और मर्मभेदिनी थी। दो बूढ़े असुर, जिनकी वेशभूषा लगभग राजा ही के समान थी, सिंहासन के नीचे व्याघ्र-चर्म पर बैठे थे।