पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/१३५

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थी। कमर में लाल दुकूल और उस पर बड़े-बड़े पन्नों की कसी पेटी उसकी क्षीण कटि ही की नहीं, पीन नितम्बों और उरोजों के सौन्दर्य की भी अधिक वृद्धि कर रही थी। उसने पैरों में नूपुर पहने थे, जिनकी झंकार उसके प्रत्येक पाद-विक्षेप से हृदय को हिलाती थी।

सोम ने कहा—"कुण्डनी, क्या आज असुरों को मोहने साक्षात् मोहिनी अवतरित हुई है?"

"हुई तो है। इसमें तुम्हें क्या, असुरों का भाग्य! तो अब झटपट तैयार हो जाओ।" कुण्डनी ने मुस्कराकर कहा।

सोम ने झटपट वस्त्र बदले। कुण्डनी ने सामने पड़े एक व्याघ्र-चर्म को दिखाकर कहा, "इसे वक्ष में लपेट लो, काफी रक्षा करेगा।"

"किन्तु कुण्डनी, हम शस्त्रहीन शत्रु के निकट जा रहे हैं।"

"मैंने जिन तीन शस्त्रों की बात कही थी, उन्हें यत्न से रखना सोम, फिर कोई भय नहीं है।"

"अर्थात् शान्त, तत्पर और प्रत्युत्पन्नमति रहना?"

"बस यही!"

"तो कुण्डनी, तुम आज की मुहिम की सेनानायिका हो?"

"ऐसा ही हो सोम। अब चलें"

"कुण्डनी बाहर आई। उसने अधिकारपूर्ण स्वर में साफ मागधी भाषा में असुर सरदार को आज्ञा दी—"सैनिकों से कह, बाजा और मशाल लेकर आगे-आगे चलें।"

कुण्डनी के संकेत से कुण्डनी की आज्ञा सोम ने असुर सरदार को सुना दी।

उस रूप के तेज से तप्त असुर-सरदार ने विनयावनत हो कुण्डनी की आज्ञा का पालन किया। कुण्डनी ने फिर सोम के द्वारा उनसे कहलाया—"तुम सब हमारे पीछे-पीछे आओ।"

और वह छम से घुंघरू बजाती विद्युत्प्रभा की साक्षात् मूर्ति-सी उस मार्ग को प्रकाशित करती असुरपुरी के राजमार्ग पर आगे बढ़ी। पीछे सैकड़ों असुर-सरदार उत्सुक होकर साथ हो लिए। सोम ने धीरे-से कहा—"मायाविनी कुण्डनी, इस समय तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे तुम्हीं इस असुर-निकेतन की स्वामिनी हो।"

"और सम्पूर्ण असुरों के प्राणों की भी।" उसने कुटिल मुस्कान में हास्य किया।