पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/१४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

33. पशुपुरी का रत्न-विक्रेता

चम्पा के पान्थागार में पर्शुपुरी के एक विख्यात रत्न-विक्रेता कई दिन-से ठहरे थे। उनके ठाठ-बाट और वैभव को देखकर सभी चम्पा-निवासी चमत्कृत थे। पान्थागार के सर्वोत्तम भवन में उन्होंने डेरा किया था और राज्य की ओर से उनकी रक्षा के लिए बहुत से सैनिक नियुक्त कर दिए गए थे। रत्न-विक्रेता के पास सैनिकों की एक अच्छी-खासी सेना थी। रत्न-विक्रेता को अभी तक किसी ने नहीं देखा था। लोग उनके सम्बन्ध में भांति-भांति के अनुमान लगा रहे थे। इसका कारण यह था कि उनके सेवकों में अदना से आला तक सभी शाहखर्च थे। वे कार्षापण का सौदा खरीदते और स्वर्ण-दम्म देकर फिरती लेना भूल जाते। ऐसा प्रतीत होता था कि स्वर्ण को वे मिट्टी समझते हैं। परन्तु सबसे अधिक चर्चा की वस्तु रत्न-विक्रेता की पुत्री थी, जो प्रतिदिन प्रातः और संध्याकाल में अश्व पर सवार हो दासियों और शरीर-रक्षकों के साथ नित्य नियमित रीति से वायु-सेवन को जाती तथा मार्ग में स्वर्ण-रत्न दरिद्र नागरिकों को हंसती हुई लुटाती थी। उसके अद्भुत अनोखे रूप, असाधारण अश्व-संचालन और अविरल दान से इन चार-पांच ही दिनों में पशुपुरी के रत्न-विक्रेता के वैभव और उसके व्यक्तित्व के सम्बन्ध में भांति-भांति की झूठी-सच्ची चर्चा नगर में फैल गई थी। अभी दो दिन पूर्व उनसे मिलने नगर के महासेट्ठि धनिक आए थे और रत्न-विक्रेता तथा उसकी पुत्री को उन्होंने कल निमन्त्रण दिया था। आज स्वयं चम्पा के अधीश्वर परम परमेश्वर महाभट्टारक श्री दधिवाहनदेव पान्थागार में पधार रहे थे। इसी से पान्थागार के द्वार मण्डप और लताओं से सजाए गए थे। भीतर-बाहर बहुत-सी दीपावलियां सजाई जा रही थीं। सैकड़ों मनुष्य काम में जुटे थे। राजमार्ग पर अश्वारोही सैनिक प्रबन्ध कर रहे थे।

रात्रि का प्रथम प्रहर बीतने पर चम्पाधिपति ने पान्थागार में राजकुमारी चन्द्रभद्रा के साथ प्रवेश किया। पशुपुरी के उस रत्न-विक्रेता ने द्वार पर आकर महाराज और राजकुमारी का स्वागत किया और सादर एक उच्चासन पर बैठाकर अपनी पुत्री से महाराज का अर्घ्य-पाद्य से सत्कार कराया। रत्न-विक्रेता के विनय और उससे अधिक उसकी पुत्री के रूप-लावण्य को देखकर महाराज दधिवाहन मुग्ध हो गए। कुमारी चन्द्रप्रभा ने हाथ पकड़कर हंसते हुए रत्न-विक्रेता की पुत्री को अपने निकट बैठा लिया। महाराज ने कहा—"चम्पा में आपका स्वागत है सेट्ठि! हमें आपको देखकर प्रसन्नता हुई है। मैंने सुना है, आप बहुत अमूल्य रत्न लाए हैं। राजकुमारी उन्हें देखना चाहती है।"

रत्न-विक्रेता ने अत्यधिक झुककर महाराज का अभिवादन किया, फिर एक दास को रत्न-मंजूषा लाने का संकेत किया। दास कौशेय-मण्डित पट्ट पर मंजूषा रख गया। उसमें से बड़े-बड़े तेजस्वी मुक्ताओं की माला लेकर रत्न-विक्रेता ने कहा—"देव चम्पाधिपति प्रसन्न हों। यह मुक्ता-माल मोल लेकर बेचने योग्य नहीं है। पृथ्वी पर इसका मूल्य कोई चुका नहीं सकता। यदि देव की अनुमति हो तो मैं यह मुक्ता-माल राजकुमारी को अर्पण करने की