पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/१५०

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प्रतिष्ठा प्राप्त करूं।"

उन बड़े-बड़े उज्ज्वल असाधारण मोतियों को महाराज दधिवाहन आंख फाड़-फाड़कर देखते रह गए। रत्न-विक्रेता ने आगे बढ़कर वह अमूल्य मुक्ता-माल राजकुमारी के कण्ठ में डाल दी।

राजकुमारी ने आनन्द से विह्वल होकर दोनों हाथों में वह माला थाम ली।

इसके बाद रत्न-विक्रेता ने कहा—"अब यदि अनुमति पाऊं तो बिक्री-योग्य कुछ रत्न सेवा में लाऊं। कदाचित् कोई राजकुमारी को पसन्द आ जाए।"

"उसने संकेत किया और दास ने बड़ी-बड़ी रत्नमंजूषाएं कौशेय पट्ट पर रख दीं। उनमें एक-से-एक बढ़कर रत्नाभरण भरे पड़े थे। राजकुमारी ने कुछ आभरणों को छांट लिया। किन्तु महाराज दधिवाहन उन सब असाधारण रत्नों से अधिक रत्न-विक्रेता के कन्या रत्न की ओर आकर्षित हो रहे थे, जो रह-रहकर बंकिम कटाक्ष से उन्हें पागल बना रही थी।

चम्पाधिपति ने बहुत-से रत्नाभरण खरीदे। अन्त में उन्होंने उठते हुए कहा—"हम आपसे बहुत प्रसन्न हैं। इस समय मागध-सैन्य ने चम्पा को घेर रखा है, इससे आपको और आपकी सुकुमारी कन्या को असुविधा हुई होगी।"

"मेरी पुत्री का देव को इतना ध्यान है, इसके लिए अनुगृहीत हूं। यह बिना माता की पुत्री है। महाराज, राजकुमारी ने इसे सखी की भांति अपनाकर जो प्रतिष्ठित किया है, उससे इसे अत्यन्त आनन्द हुआ है।"

"राजकुमारी चाहती है, आप जब तक यहां हैं, आपकी पुत्री राजमहालय में उन्हीं के सान्निध्य में रहे। आपको इसमें कुछ आपत्ति है?" महाराज ने छिपी दृष्टि से रत्न-विक्रेता की पुत्री को देखकर कहा, जो मन्द मुस्कान से राजा के वचन का स्वागत कर रही थी।

रत्न-विक्रेता ने कहा—"यह तो उसका परम सौभाग्य है। राजकुमारी उसे अपने साथ ले जा सकती हैं। यहां परदेश में देव, यह अकेलापन बहुत अनुभव करती है।"

राजकुमारी ने हंसकर रत्न-विक्रेता की कन्या का हाथ पकड़कर कहा—"चलो सखी, हम लोग बहुत आनन्द से रहेंगे।"

उसने विनय से मस्तक झुकाया। प्रधान दास ने उत्तरी वासक उसके कन्धों पर डालते हुए अवसर पाकर धीरे-से उसके कान में कहा—"बैशाखी की रात को चार दण्ड रात्रि व्यतीत होने पर।"

और वह विनय से झुकता पीछे हट गया। रत्न-विक्रेता की पुत्री ने, जो वास्तव में कुण्डनी थी, पिता के चरणों में प्रणाम किया। दोनों ने दृष्टि-विनिमय किया।

महाराज राजकुमारी और रत्न-विक्रेता की कन्या को लेकर चले गए। उनके जाने पर रत्न-विक्रेता ने द्वार बन्द करने का आदेश दिया। फिर एकान्त पाकर अपने नकली केश और परिच्छद उतार फेंका। दास भी निकट आ खड़ा हुआ।

"सब ठीक हुआ न सोम?"

"हां, आर्य!"

"सेनापति भद्रिक की सहायता मिल जाएगी न?"

"सब ठीक हो गया है, आर्य।"

"आयुष्मान् अश्वजित अपना कार्य कर रहा है?"