पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/१८५

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भोगिए, लक्षावधि निरीह जनपद उसे सहन कर जाएगा।"

भगवान् वादरायण कुछ देर दूर क्षितिज में टिमटिमाते तारे को देखते रहे, फिर उन्होंने कहा—"सम्राट् आर्यों ने अपने पाप का फल पा लिया। उन्होंने जीवन में भूलों पर भूलें कीं, भारत की उर्वरा भूमि में आकर भी उन्होंने अपना विनाश किया। हिमालय के उस ओर से आनेवाली कुरु-पांचालों की शाखाओं से यदि उत्तर कुरु के भरतों का संघर्ष न होकर दोनों की संयुक्त जाति बनती तो कैसा होता? परन्तु उत्तर कुरु के देवगण अपनी विजय के गर्व में मत्त रहे, वहीं खप गए। आर्यावर्त में उनका प्रसार ही न हो पाया। इधर ये पौरव दक्षिण में द्रविणों को आक्रान्त कर उनसे मिल गए। आर्यों की यह पहली भूल थी। इसके बाद उन्होंने राजन्यों की, पुरोहितों की, फिर विशों की न्यारी-न्यारी शाखाएं चलाईं। अनुलोभ-प्रतिलोभ विवाह प्रचलित किए। ब्राह्मणों ने दक्षिणा में और क्षत्रियों ने विजयों में सुन्दरी दासियों के रेवड़ भर लिए। परिणाम वही हुआ जो होना था। अनगिनत वर्णसंकर सन्तानें उत्पन्न होने लगीं। पहले उन्होंने उन्हें पिता के कुलगोत्र में ही रखा और दाय भाग भी नहीं दिया। परन्तु बाद में उन्हें इन आर्यों ने अपने कुलगोत्र से च्युत कर दिया। दायभाग तब भी नहीं दिया। पहले प्रतिलोभ सन्तान ही संकर थी, अब अनुलोभ-प्रतिलोभ प्रत्येक सन्तान संकर बना दी गई और उन्हें अपना उपजीवी बनाकर उनकी पृथक् जातियां बना दी गईं। यह आर्यों की दूसरी भूल थी। सभी संकर मेधावी, परिश्रमी, सहिष्णु एवं उद्योगी थे—जैसा कि होता ही है; आर्य अधिकार-मद पी मद्यप, आलसी, घमण्डी और अकर्मण्य होते गए। अब वे या तो थोथे यज्ञाडम्बरों की हास्यापद विडम्बना में फंसे हैं, या कोरे कल्पित ब्रह्मवाद में। इसी से सम्राट्, आज आर्यों में प्रसेनजित् जैसे सड़े-गले राजा रह गए। आज सम्पूर्ण भरतखंड में आर्य केवल प्रजावर्गीय रह गए हैं, राजसत्ता उन कर्मठ संकरों के हाथ में आती जा रही है। एक दिन भाग्यहीन प्रसेनजित् अति दयनीय दशा में प्राणों के भार को त्यागेगा।"

"किन्तु भगवन् मेरा स्वप्न क्या सत्य होगा?"

"जम्बूद्वीप पर अखंड साम्राज्य-स्थापन का? इसके लिए तो पूर्व में आपका उद्योग चल ही रहा है। उधर पश्चिम में पार्शव सम्राट भी इसी आयोजन में है।"

"परन्तु भगवन्, आर्य कभी उसे न अपनाएंगे।"

"क्यों नहीं, बहुत बार उसने इन्द्रपद ग्रहण किया है। सभी आर्यों ने तो उसका पूजन किया।"

"किन्तु वासुदेव कृष्ण ने जो उसका प्रबल विरोध किया था, वह क्या भगवान् को विदित नहीं?"

"क्यों नहीं!"

"भगवन्, मैं शिशुनागवंशी बिम्बसार वासुदेव कृष्ण का अनुवंशी हूं, आर्य नहीं; मैं पार्शव सम्राट का विरोध करूंगा।"

"सम्राट की इस वासना को मैं जानता हूं।"

"तो भगवत्पाद का अब मुझे क्या आदेश है?"

"सम्राट तुरन्त राजगृह जाएं।"

"किसलिए भगवन्?"