आज आखेट पर ही रहें।"
शंब अपनी सफलता पर बहुत प्रसन्न था। सांभर बहुत भारी था। उसने जल्दी-जल्दी राजकुमारी और कुण्डनी के विश्राम की व्यवस्था की और हरिणी का मांस भूनने लगा। सोम ने कहा—"तनिक इधर-उधर मैं देख लूं, यदि थोड़ा दूध मिल जाय।"
उन्होंने अपना बर्छा उठाया और चल दिए। निवृत्त होकर कुण्डनी ने कुमारी के मनोरंजन की बहुत चेष्टा की। वह उनके निकट आकर बातें करने लगी। कुण्डनी ने कहा—
"राजकुमारी प्रसन्न हों, भाग्य-दोष से समय-कुसमय जीवन में आता ही है। इतना खिन्न न हों राजकुमारी।"
"खिन्न नहीं हूं हला, लज्जित हूं, तुम्हारे और तुम्हारे इस सौम्य दास के उपकार के लिए। कब कैसे बदला चुका सकूंगी?"
"राजकुमारी; हम सब तो आपके सेवक हैं। आपको कभी सुखी देखकर हमें कितना आनन्द होगा।" कुण्डनी ने आर्द्र होकर कहा।
"किन्तु सखी, क्या सचमुच वह वीर तुम्हारा दास है?" राजकुमारी ने नीची दृष्टि से सोम की ओर देखकर कहा।
"मेरा ही नहीं, आपका भी राजनन्दिनी।"
"नहीं, नहीं उसका तेज, शौर्य सत्साहस श्लाघ्य हैं। वह तो किसी भी राजकुल का भूषण होने योग्य है। फिर उसका विनय और कार्य-तत्परता कैसी है!"
"इसकी उसे शिक्षा मिली है हला।"
"क्या नाम कहा—सोम?"
"हां, सोम।"
"और उस दास के दास का नाम शंब?"
"जी हां, दास के दास का शंब।" कुण्डनी हंस दी।
राजकुमारी होंठों ही में मुस्कराईं। उन्होंने कोमल भाव से कहा—
"सखी, इस विपन्नावस्था में ऐसे अकपट सहायक मित्रों से दासवत् व्यवहार करना ठीक नहीं है। वे हमारे आत्मीय ही हैं।"
"किन्तु राजनन्दिनी, दास दास हैं, सेवा उनका धर्म है। उनके प्रति उपकृत होना उन्हें सिर चढ़ाना है।"
"ऐसा नहीं हला, अन्ततः मनुष्य सब मनुष्य ही हैं और वह तो एक श्रेष्ठ पुरुष है। मैं उन्हें दास नहीं समझ सकती।"
"तो आप राजकुमार समझिए राजनन्दिनी। यह आपके हृदय की विशालता है।"
"नहीं, वे राजकुमार से भी मान्य पुरुष हैं हला।" राजकुमारी का मुंह लज्जा से लाल हो गया और आंख से आंसू झरने लगे।
इसी समय सोम कुछ आहार-द्रव्य और थोड़ा दूध ले आए। शंब ने भी हरिण को भून-भान लिया था। राजकुमारी क्षण-भर को अपनी विपन्नावस्था भूलकर फुर्ती से आहार को स्वयं परोसने लगीं। उन्होंने पलाश-पत्र पर आहार्य संजोकर अपनी बड़ी-बड़ी पलकें सोम की ओर उठाईं और कहा—"भद्र, भोजन करो।"
सोम ने विनयावनत होकर कहा—