पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/२०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

52. सोण कोटिविंश

शाक्यपुत्र गौतम विहार करते हुए साढ़े बारह सौ भिक्षुक संघ के साथ राजगृह पहुंचे और गृध्रकूट पर्वत पर विहार किया। सर्वार्थक अमात्य ने मगधराज सेनिय बिम्बसार से निवेदन किया—"देव, शाक्यपुत्र श्रमण राजगृह में भिक्षु-महासंघ सहित छठी बार पधारे हैं और गृध्रकूट पर विहार कर रहे हैं। उनका मंगल यश दिगन्त-व्यापक है, वह भगवान् अर्हत हैं, सम्यक्-सम्बुद्ध हैं, विद्या और आचरण से युक्त सुगत हैं। देवताओं और मनुष्यों के शास्ता हैं। वह ब्रह्मलोक, मारलोक, देवलोक-सहित इस लोक के देव-मनुष्य सहित, साधु ब्राह्मणयुक्त सब प्रजा को यथावत् जानते हैं , वह आदि, मध्य और अन्त में कल्याणकारक धर्म का अर्थ-सहित, व्यञ्जना-सहित उपदेश देते हैं। वे पूर्ण और शुद्ध ब्रह्मचर्य के उपदेष्टा और जितेन्द्रिय महापुरुष हैं। ऐसे अर्हत् का दर्शन करना उचित है। आगे जैसी देव की आज्ञा हो!"

सम्राट ने उत्तर दिया—"तो भणे, तथागत के दर्शनों को चलना चाहिए। तुम बारह लाख मगध-निवासी ब्राह्मणों और गृहस्थों को तथा अस्सी हज़ार गांवों के मुखियों को सूचना दे दो, सब कोई महाश्रमण के दर्शनों को हमारे साथ चलें।"

सूचना-सचिव ने यही किया। उस समय चम्पा के सुकुमार सेट्ठिपुत्र सोण कोटिविंश राजगृह में सम्राट् के अतिथि थे। वे इतने सुकुमार थे कि उनके पैरों के तलुओं में रोम उग आए थे। इसी आश्चर्य को देखने के लिए सम्राट ने सोण कोटिविंश को मगध में बुलाया था। उसने जब सुना कि सम्राट् महाश्रमण के दर्शनों को मागध जनपद-सहित जा रहे हैं, तो उसने कहा—देव, मुझे इस सौभाग्य से क्यों वंचित किया जाता है? तब सम्राट ने सोण कोटिविंश से इस जन्म के हित की बात कही। फिर कहा—"भणे, मैंने तुम्हें इस जन्म के हित का उपदेश दिया, अब तुम्हें यदि जन्मान्तर के हित की बातें सुनने का चाव हो तो तुम जाओ उन भगवान् की सेवा में।"

इसके बाद श्रेणिक सम्राट् बिम्बसार सोण को आगे करके सम्पूर्ण राज परिजन पौर जानपद को संग ले गृध्रकूट पर्वत पर, जहां भगवान् गौतम विहार कर रहे थे, पहुंचे।

उस समय आयुष्मान् स्वागत भगवान् गौतम में उपस्थापक थे। उनके निकट जाकर सूचना-सचिव से निवेदन किया—"भन्ते, यह श्रेणिक सम्राट् बिम्बसार, सोण कोटिविंश, समस्त राज परिजन पौर जानपद-सहित महाश्रमण के दर्शन को आ रहे हैं। आप महाश्रमण को सूचित कर दीजिए।"

"तो आयुष्मान् मुहूर्त-भर आप लोग यहीं ठहरें-मैं भगवान् से निवदेन करूं।" इतना कह आयुष्मान् स्वागत ने अर्द्धचन्द्र पाषाण में प्रवेश किया और ध्यानस्थ बुद्ध से निवेदन किया कि सम्राट् सपरिवार भगवान् का दर्शन किया चाहते हैं। सो भगवान् अब जिसका काल समझें!"

"तो स्वागत, विहार की छाया में आसन बिछा।"