पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/२०७

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"अच्छा भन्ते।" कहकर आयुष्मान् स्वागत ने सम्पूर्ण व्यवस्था कर दी। जब महाश्रमण विहार से निकलकर आसन पर बैठ गए तो उसने सम्राट को सूचना दी। सम्राट सम्मुख आ, अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। इसके बाद सब लोग यथा-स्थान कोई हाथ जोड़कर, कोई मौन होकर; कोई प्रदक्षिणा करके बैठ गए।

महाश्रमण ने उन्हें सम्बोधित कर दानकथा, शीलकथा, स्वर्गकथा, कामभोगों के दुष्परिणाम, उपकार, मालिन्य और काम-भोगों से रहित होने के गुणों का वर्णन किया, जिससे श्रावक जन भव्यचित्त, मृदुचित्त, अनाच्छादित-चित्त और आह्लादितचित्त हो गए। तब अवसर जान महाश्रमण ने दुःख, दुःख का कारण, दुःख का नाश और दुःख के नाश का उपाय प्रकट किया। तब सम्राट्, राजवर्ग, पौर जानपद सबको—जो कुछ उत्पन्न होने वाला है, वह सब नाशवान् है, यह विमल-विरज निर्मल धर्मचक्षु, जहां जो बैठा था, उसे उसी आसन पर उत्पन्न हुआ। तब तथागत ने दृष्टधर्म, प्राप्तधर्म, विदितधर्म, पर्यवगाढ़ धर्म का विशद व्याख्यान किया।

इस पर बारह लाख मगध निवासी और अस्सी हज़ार ग्रामों के मुखिया तथा समस्त राजवर्गी जन संदेहरहित हो संघ, धर्म और बुद्ध के अञ्जलिबद्ध शरणागत उपासक हो गए।

सोण कोटिविंश चुपचाप सुन रहा था। उसने सोचा, महाश्रमण ने जिस सुविख्यात धर्म का वर्णन किया है, वह सर्वथा परिपूर्ण, शुद्ध और उज्ज्वल ब्रह्मचर्य-साधन बिना सुकर नहीं है। ब्रह्मचर्य-साधन के निमित्त मुझे परिव्राजक होना उचित है।

जब सम्राट्, राजवर्ग, पौर जानपद, महाश्रमण के भाषण का अभिनन्दन कर, आसन से उठ, उनकी प्रदक्षिणा कर चले गए, तब सोण कोटिविंश आसन से उठकर महाश्रमण के निकट आया और अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। जब तथागत ने उसकी ओर दृष्टि की, तब उसने करबद्ध प्रार्थना की—"भगवन्, मैंने भगवान् के उपदेश-धर्म को जिस प्रकार समझा है, उससे जान पड़ता है कि घर में रहकर ब्रह्मचर्य सुकर नहीं है। अतः मैं सिर-दाढ़ी मुंडाकर, काषाय वस्त्र पहन घर से बेघर हो प्रव्रजित हुआ चाहता हूं। भन्ते मुझे प्रव्रज्या दें!"

सोण कोटिविंश ने प्रव्रज्या और उपसम्पदा पाई। उसे सीतवन में विहार के लिए स्थान मिला। परन्तु वह सुकुमार सेट्ठि कुमार कभी पांव-प्यादे नहीं चला था, इसी से उसके पैरों के तलुओं में रोम उग आए थे। अब नंगे पैर कठोर पृथ्वी पर चलने से उसके पैर लहू लुहान हो गए और धरती लहू से भर गई।

तथागत ने यह देखा। वे उस रक्त से भरे मार्ग पर सोण के पदचिह्न देखते हुए सीतवन में, जहां सोण का विहार था, पहुंचे।

वहां सोणकुमार एकान्त में बैठा यह सोच रहा था—"भगवान के जितने उद्योग परागण विहरनेवाले शिष्य हैं, मैं उनमें एक हूं। फिर भी मेरा मन आश्रकों को छोड़कर मुक्त नहीं हो रहा है। मेरे घर में भोग-सामग्री है, वहां रहते मैं भोगों को भी भोग सकता हूं और पुण्य भी कर सकता हूं। तब क्यों न मैं लौटकर गृहस्थ भोगों का उपभोग करूं, और पुण्य भी करूं?"

तभी भगवान् बुद्ध अनेक भिक्षुओं के साथ वहां पहुंच गए। सोण ने भगवान् का