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पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/२०८

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समुत्थानपूर्वक स्वागत किया, आसन दिया। स्वयं एक ओर बैठ गया। स्वस्थ होने पर श्रमण बुद्ध ने कहा—

"क्यों सोण, एकांत में क्या सोच रहे हो?"

सोण ने अपने मन का विकार निवेदन कर दिया। तथागत ने कहा—

"क्यों सोण, क्या तू पहले गृहस्थ होते समय वीणा बजाने में चतुर था?"

"हां भन्ते!"

"तो सोण, जब तेरी वीणा के तार खूब खिंचे होते थे, तभी तेरी वीणा स्वरवाली होती थी?"

"नहीं भन्ते!"

"और जब वे तार खूब ढीले होते थे तब?"

"तब भी नहीं भन्ते।"

"किन्तु जब तार ठीक-ठीक आरोह-अवरोह पर होते थे तब?"

"तब तो भन्ते, वीणा ठीक स्वर देती थी।"

"तो इसी प्रकार सोण, अत्यधिक उद्योगपरायणता औद्धत्य को उत्पन्न करती है। इसलिए सोण, तू उद्योग में समता को ग्रहण कर। इन्द्रियों के सम्बन्ध में समता को ग्रहण कर और वहां कारण को ग्रहण कर।"

"अच्छा भन्ते!"

"तो सोण, तू सुकुमार है, तुझे अनुमति देता हूं, एक तल्ले का जूता पहन।"

"भन्ते, मैं अस्सी गाड़ी हिरण्य और हाथियों के सात अनीक को छोड़कर घर से बेघर हो प्रव्रजित हुआ हूं। अब कहनेवाले कहेंगे, सोण कोटिविंश अस्सी गाड़ी स्वर्ण मुहर और हाथियों की सात अनीक को छोड़कर प्रव्रजित हुआ, सो वह अब एक तल्ले के जूते में आसक्त हुआ है। सो भगवन्, यदि भिक्षु-संघ के लिए भी अनुमति दे दें, तो मैं भी एक तल्ले का जूता ग्रहण करूंगा, नहीं तो नहीं।"

भगवान् ने फिर भिक्षु-संघ को एकत्र किया, तथा इसी प्रकरण में, इसी प्रसंग में अनेक कथाएं कहकर भिक्षुओं को एक तल्ले के जूते पहनने की अनुमति दे दी।