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सेट्ठि का जैतवन को स्वर्ण से ढांपने में 18 करोड़ मुहरों का एक चहबच्चा खाली हो गया और 8 करोड़ स्वर्ण खर्च करके उसने आठ करीष भूमि में विहार आदि बनवाए और सब भिक्षुसंघ के चीवर, पिंडपात, शयनासन, ग्लान-प्रत्यय, भैषज्य आदि परिष्कारों में सत्कृत होने की व्यवस्था कर दी।