पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/२१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

54. मगध-महामात्य की कूटनीति

सम्राट् की आज्ञा से तथागत बुद्ध के लिए त्रिकूट पर एक विशाल विहार बनवाना प्रारम्भ हुआ, जिसमें सहस्रों शिल्पी कार्यरत थे। सम्राट् और साम्राज्य दोनों ही महाश्रमण गौतम के चरणसेवक थे। चंपा का सुकुमार सेट्ठिकुमार कोटिविंश सोण अब अपनी इतनी संपदा को त्यागकर परिव्राजक हो गया, तो उसका जनसाधारण पर बहुत भारी प्रभाव पड़ा। यों भी इस बार तथागत गौतम के भिक्षसंघ में बड़े-बड़े दिग्गज नामांकित विद्वान पंडित भिक्षुरूप में उनके साथ थे, जिनमें पूर्णकाश्यप, मक्खली गोशाल, अजित केसकंबली, प्रक्रुद्ध कात्यायन, संजयवेलाट्ठपुत्त, सारिपुत्त, मौद्लायन, पिंडोत भारद्वाज आदि प्रमुख थे। महाश्रमण के दर्शन करने, उनके पुण्य उपदेश सुनने को नर-नारियों का तांता लगा रहता था। इस समय राजगृह में केवल दो ही बातों की चर्चा थी; एक चंडप्रद्योत के राजगृह पर आक्रमण और अकस्मात् पलायन की, दूसरे श्रमण गौतम की, जिनके नवीन धर्म के नीचे समस्त पौर जानपद और राजवर्ग समान रूप से नत-मस्तक हो गया था। बड़े-बड़े राजकुमार, सेट्ठिपुत्र, छोटे-बड़े तरुण अपने सम्पूर्ण विलास-ऐश्वर्य त्यागकर भिक्षु बन रहे थे। चारों ओर भिक्षु-ही-भिक्षु दीख रहे थे। ब्रात्यों, संकरों और अब्राह्मणों को उनका धर्म बहुत अनुकूल प्रतीत हो रहा था। अब तक ब्राह्मणों का जो धर्म प्रजा पर बलात् चिपकाया गया था, उससे जनपद को संतोष न था। ब्राह्मण धर्म से भीतर-ही-भीतर द्वेष-भावना देश में बहुत फैल गई थी, क्योंकि उसमें निम्न श्रेणी के उपजीवियों के विकास का कोई अवसर ही न था। वह राजाओं, ब्राह्मणों और सेट्ठियों का धर्म था। वे ही उससे लाभान्वित होते थे। वैदिक देवताओं के नाम पर जो बड़े-बड़े खर्चीले यज्ञ किए जाते थे, उनसे राजा महाराजा बनते तथा महाराज सम्राट् बनते थे। यह उनका लाभ था। पुरोहित मोटी-मोटी दक्षिणा पाकर इन राजाओं को देव कहकर पुकारते और भाग्यवाद का ढिंढोरा पीटकर लोगों की स्पर्धा को रोक रखते थे। सर्वसाधारण को उनके इन यज्ञानुष्ठानों के लिए दिग्विजय करने को अपने तरुण पुत्रों के प्राण भेंट करने पड़ते थे, तरुण कुमारी पुत्रियां दासी के रूप में भेंट करनी पड़ती थीं एवं अपनी गाढ़ी कमाई का स्वर्ण, चांदी, अन्न-वस्त्र सब-कुछ भेंट करना पड़ता था, जिन्हें राजा अपनी ओर से ब्राह्मणों को दान दे वाहवाही लूटते थे। इस प्रकार ब्राह्मण-धर्म राजतन्त्र का पोषक था, परन्तु बुद्ध ने प्रजातन्त्रीय भावना उत्पन्न कर दी थी। ब्राह्मण धर्म में जो ऊंच-नीच का भेद था, उसे मिटाने में श्रमण गौतम ने बहुत प्रयास किया। उन्होंने बड़े-बड़े खर्चीले और आडम्बरपूर्ण यज्ञों के स्थान में आत्मयज्ञ की महत्ता पर ज़ोर दिया। व्रात्य, संकर और विश—ये सभी ब्राह्मण-धर्म के बोझ से दबे थे। बुद्ध ने इनका उद्धार किया। ब्राह्मणेतर युवकों को उन्होंने श्रमण परिव्राजक बनाया। उन्हें ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की शिक्षा दी। देश के बड़े-बड़े सुकुमार कोट्याधिप युवक जब ऐश्वर्य त्यागकर श्रमण बन गए, तो घबराकर ब्राह्मणों ने आश्रमों की स्थापना की और यह प्रचार किया कि बिना