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पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/२१८

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"सम्राट की केवल एक यही आज्ञा मानने को मैं बाध्य हूं।"

"किन्तु मेरी और भी आज्ञाएं हैं।"

"देव कह सकते हैं।"

"आपने राजविद्रोह किया है। किन्तु आप ब्राह्मण हैं, इसलिए अवध्य हैं। परन्तु मैं आपका सर्वस्व हरण करने की आज्ञा देता हूं।"

"मैं ब्राह्मण हूं, इसलिए सम्राट् का यह आदेश भी मानता हूं। परन्तु मेरी एक घोषणा है।"

"आर्य कह सकते हैं, परन्तु अनुग्रह नहीं पा सकते।"

"मैं अनार्य श्रेणिक सम्राट बिम्बसार की अब प्रजा नहीं हूं। सम्राट, यह आपका खड्ग है।"

महामात्य ने खड्ग पृथ्वी पर रखकर आसन त्याग दिया। सम्राट ने कहा—"अप्रजा को मेरे राज्य में रहने का अधिकार नहीं है।"

"मैं मगध को त्यागकर ही अन्न-जल ग्रहण करूंगा।" इतना कहकर महामात्य ने सभा-भवन त्याग दिया और पांव-प्यादे ही अज्ञात दिशा की ओर चल दिए। राजगृह में सन्नाटा छा गया। सम्राट् ने विज्ञप्ति प्रज्ञापित की—"जो कोई आर्य वर्षकार को साम्राज्य में आश्रय देगा, उसका सर्वस्व हरण करके उसे शूली दी जाएगी।" इसके बाद उन्होंने सेनापतियों को वैशाली पर आक्रमण करने की तैयारी करने की आज्ञा देकर सभा भंग की।