56. नापित-गुरु
राजगृह के चतुष्पथ पर एक खरकुटी थी। खरकुटी छोटी-सी थी, पर वह राजगृह भर में प्रसिद्ध थी। उसके स्वामी का नाम प्रभंजन था। वह एक आंख का काना था। आयु उसकी साठ को पार कर गई थी। वह लम्बा, दुबला-पतला और फुर्तीला था। बाल मूंड़ने और उष्णीष बांधने में वह एक था। अनेक व्रात्य, संकर और श्रोत्रिय ब्राह्मण उसकी खरकुटी में आकर बाल मुंड़वाते और उष्णीष बंधवाते थे। वह बड़ा वाचाल, चतुर और बहुज्ञ था। उसकी पहुंच छोटे से बड़े तक सर्वत्र थी। वह बड़ा आनन्दी प्रकृति का जीव था। लोग उससे प्रेम करते, उसकी बातों से प्रसन्न होते, उसके कार्य से संतुष्ट होते तथा उससे डरते भी थे। डरने का कारण यह था कि लोग कानोंकान उसके विषय में बहुधा कहते कि सम्राट और वर्षकार भी उसे बहुत मानते हैं और वह प्रासाद महालय में जाकर उनके बाल मूंड़ता है। कुछ लोगों का कहना था—'इसे सम्राट् और वर्षकार के अनेक गुप्त भेद मालूम हैं, इससे सम्राट् तथा अमात्य भी भय खाते हैं।' परन्तु जब-जब कोई उससे इन महामान्य जनों की चर्चा करता, वह केवल मुस्कराकर टाल जाता। वह बहुधा धार्मिक कथा-प्रसंग लोगों को सुनाया करता। लोग उसे नापित-गुरु कहकर पुकारते थे।
दो दण्ड रात्रि व्यतीत हो चुकी थी। किन्तु खरकुटी में अब भी ग्राहकों की काफी भीड़-भाड़ थी। प्रभंजन अपने दो सहायकों के साथ काम में जुटा था, छुरे के साथ ही उसकी जीभ भी तेज़ी से चल रही थी। इतने में एक ग्रामीण वेशधारी पुरुष ने खरकुटी में प्रवेश किया।
प्रभंजन ने बात रोककर कहा—"क्या चाहिए आवुस? बाल यदि मुंड़वाना है तो मेरा शिष्य अभी मूंड़ देगा।"
"परन्तु मैं अवमर्दन...।"
प्रभंजन ने बीच ही में बात काटकर कहा—
"अब इस समय अवमर्दन नहीं हो सकेगा मित्र, कल...।"
"नहीं-नहीं, मित्र, मैं अवमर्दक हूं, तुम्हारी दूकान में नौकरी चाहता हूं। मैं अपने काम में सावधान हूं—तुम मेरी परीक्षा कर सकते हो।"
प्रभंजन ने आगन्तुक को घूरकर देखा और फिर कहा—"एक अवमर्दक की मेरे परिचित एक महानुभाव को आवश्यकता है। यदि तुम अपने काम के ठीक ज्ञाता हो तो मैं तुम्हें वहां पहुंचा सकता हूं। परन्तु आवुस, तुम आ कहां से रहे हो?"
"वैशाली से मित्र।"
"क्या लिच्छवी हो?"
"नहीं-नहीं, लिच्छवी क्या अवमर्दक होते हैं? मैं व्रात्य हूं।"
"सो तो मैं तुम्हारी नोकदार झुकी हुई उष्णीष देखते ही पहचान गया था, फिर भी