अब। " “ जो हो, पर अस्वाभाविक कुछ न हो । सावधान, कड़ी परीक्षा का समय है। आओ आगे- आगे कुण्डनी और पीछे-पीछे सोम अन्तःद्वार में प्रविष्ट हुए। पद- पद पर दीपालोक बढ़ रहा था । तरुणियां उन्मत्त विलास में मग्न थीं । अन्तःपुर के मृदंग और मदिरा से उन्मत्त कोकिल कंठ - स्वर सुनाई दे रहे थे। दूर तक विस्तीर्ण वाटिका में नाग , पुन्नाग , अशोक , अरिष्ट और शिरीष के सघन वृक्ष लगे थे। माला - वृक्षावलियां दूर तक फैल रही थीं । उन नील- सघन गुल्मों के पत्तों पर उज्ज्वल ज्योत्स्ना की अनोखी छटा दीख रही थीं । दोनों व्यक्ति वृक्षों की छाया में अपने को छिपाते बंकिम मार्ग से चले जा रहे थे। अन्तःकोष्ठ के लोहार्गल- युक्त कपाट के उस ओर द्वारपाल को देखकर कुण्डनी ने हंसते हुए स्वर्णमंडित ताम्बूल की दो वीटिका उसके मुंह में ठंस दीं । द्वारपाल प्रसन्न हो गया । कुण्डनी ने कहा - “ आज तो हुड़दंग का दिन है भणे! " " हन्दजे , आनन्द है, आनन्द है ! ” । दोनों आगे बढ़ गए । द्वारपाल ने बाधा नहीं दी । दोनों विस्तृत वाटिका- वीथियों पर चलने लगे। दोनों ओर की सघन वृक्षों की पंक्तियों से यहां अंधेरा छाया हुआ था । अन्त को दोनों अन्तःपुर के अन्तःप्रवेश द्वार पर आ पहुंचे। सोम का हृदय धड़कने लगा। द्वार पर यवनी दासियां धनुष - बाण लिए मुस्तैद खड़ी थीं । उनका वर्ण गौर था । उनका सारा अंग आगुल्फ कंचुक से आवेष्टित था । एक - एक छोटा खड्ग उनकी कटि में बंधा था तथा मस्तक पर उत्तरीय स्वर्ण- खचित पट्ट से बंधा था । उनके कान के दन्तपत्र उनके चिक्कण कपोलों पर क्रीड़ा कर रहे थे। पैरों में लगा अलक्तक रस दूर ही से भासित हो रहा था । वे कुल पांच थीं । मदिरा के आवेश से उनकी आंखों के कोए लाल हो रहे थे। उन्होंने कुछ चकित भाव के कुण्डनी की ओर देखा । वे समझ ही नहीं रही थीं कि कुण्डनी किस दर्जे की स्त्री है । कुण्डनी ने हंसकर उनके दन्तपत्र को क्रीड़ा से छूआ , फिर कंचुक से मद्यपात्र निकालकर कहा - “पियो हला, देवी कलिंगसेना के लिए! " __ पांचों ने मद्यपात्र छीन लिया । एक ने पात्र मुंह से लगाया , दूसरी उसे छीनने लगी । कुण्डनी हंसती हुई उन्हें एक दूसरी पर धकेलकर चली गई। किसी ने उनकी तरफ नहीं देखा । अब वे वास्तविक अन्तःपुर में आ गए। सोम ने स्खलित वाणी से कहा- “ कुण्डनी, भला कहीं कभी इस अन्तःपुर का अन्त भी होगा ? " परन्तु कुण्डनी ने उसे चुप रहने का संकेत किया । वे मल्लिका, कुरण्टक, नव मल्लिका आदि के गुल्मों को पार करते हुए चलते गए । बकुल और सिन्धुवार की भीनी महक ने उन्हें उन्मत्त कर दिया । उधर गवाक्षों से लाल -पीली नीली प्रकाश - छटा छन छनकर उन पर पड़ रही थी । उनमें से मृदंग, मंजीर , काहल और शंख का नाद सुनाई पड़ रहा था । परिचारिकाएं द्विपदी खण्ड गान कर रही थीं । आगे चलकर देखा , तरुणियों का एक झुण्ड नृत्य - गान करता आ रहा है। वे पान - मत्त थीं । नारीसुलभ मर्यादा को वे त्याग चुकी थीं । उनके केशपाश खुल गए थे। उत्तरीय खिसक गए थे। मंजरीक , उरच्छक , वंटक और अचेलक मालाएं अस्त -व्यस्त हो रही थीं । पैरों के नूपुर बार - बार पैर पटकने से झनझना रहे थे। वे सब इनके पास आ गईं , सोम कुण्डनी की पीठ में छिप गया । कण्डनी ने
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