पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/२७५

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गुप्त होना चाहिए, इसलिए सौम्ये, वाम तोरण तक तुम्हें अवगुण्ठन में पांव प्यादे चलना होगा । ” राजकुमारी रोती हुई कलिंगसेना से लिपट गई। रोते - रोते उसने कहा - “ भद्रे, मैं कैसे आपका और देवी नन्दिनी का उपकार व्यक्त करूं ! ओह, यह आशातीत है। “ नहीं -नहीं सौम्ये , अब चलो। " अब कुण्डनी की ओर राजनन्दिनी ने आंख उठाकर देखा । उस रूप की ज्वाला की ओर अभी दोनों रानियों ने ध्यान ही नहीं दिया था । अब उसे देखकर कहा - “ तुम कौन हो भद्रे! " “मैं कुमारी की एक सेविका हूं। " कुमारी ने कहा- “यह मेरी प्राण- रक्षिका है। एक और व्यक्ति भी है। ” कहते- कहते कुमारी का मुंह लाल हो गया । कुण्डनी ने आगे बढ़कर उन्हें प्रणाम करके कहा " मेरा अपराध क्षमा हो भद्रे, मैंने छद्मवेश में अन्तःपुर में प्रवेश कर कुमारी को सहायता दी है। मैंने ही श्रमण महावीर को सूचना भेजी है जिससे राजकुमारी आपकी कृपा प्राप्त कर सकीं । ” ___ " तो शुभे, आपत्ति नहीं । पर अब कहां जाओगी ? राजनन्दिनी के साथ तो रहना नहीं हो सकेगा । " - “ नहीं अय्ये, मैं राजकुमारी के साथ नहीं जाऊंगी । मेरा कार्य समाप्त हो गया । राजनन्दिनी की रक्षा हो गई। तो कुमारी, अब विदा ! " कुमारी आंखों में आंसू भरे देखती ही रही और कुण्डनी तीनों को प्रणाम कर वहां से चल दी । कुछ देर के बाद राजकुमारी को अत्यन्त प्रच्छन्न रूप में शिविका में पहुंचा दिया गया और वे यथासमय साकेत सुरक्षित पहुंच गईं ।