पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/३०१

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सोम नाउन का संकेत पा उसके पास आ बैठा । उसने कहा “ कह मित्र, दासी कैसी है ? " “ क्या कहने हैं , मित्र ! परन्तु इसे मैं मोल लूंगा। " “किन्तु मित्र, यह सहज नहीं है। इस दुष्ट दीह ने इसे राजकुमार विदूडभ को भेंट करने का संकल्प किया है ! हाथ का मद्यपात्र रिक्त कर उसने हंसते हुए कहा - “ तो जाय यह कोसल दुर्ग में । " सोम के कान खड़े हो गए। उसने कहा " कोसल- दुर्ग में इसे भेजना चाहिए मित्र ! कोई कौशल कर , वह उसी नटी के सम्बन्ध में दासी से बात कर रहा है । ले पी मित्र ! ” सोम ने मद्यपात्र उसके आगे करके कहा । ___ “ बन्धुल मेरा मित्र है। वह सबका सेनापति है, मेरा नहीं। मेरा मित्र है। ” उसने हंसते हुए कहा । “ तो मित्र , फिर बाधा क्या है ? ” बन्धुल सेनापति यदि कोसल- दुर्ग में है, तो इस दीह को वहीं लाद दो । फिर दासी तेरी है, एक पण भी खर्च नहीं होगा । " “मैं आज ही मित्र बन्धुल से कहूंगा मित्र! रहस्य की बात है-बंधुल मेरा चिरबाधित है । " " और कुमार विदूडभ ? " ओह, उसकी क्या बात ? वह बन्दी है ? " “ क्या सच ? यह क्या कहते हो मित्र ? ” " चुप , कहने - योग्य नहीं । वह उसी कोसल- दुर्ग में बन्दी है। " " नहीं मित्र, तुझे किसी ने भ्रमित किया है । " “ तू मूर्ख है मित्र! मैंने उसे स्वयं दुर्ग के बन्दीगृह में पहुंचाया है। अरे, जलगर्भ में बन्दी- घर का द्वार है । " क्या कह रहा है मित्र ? ले मद्य पी । " और चषक पीकर उसने कहा - “ क्या मेरी बात पर अविश्वास करते हो ? " “विश्वास नहीं होता मित्र! तू झूठ बोलता है । " " तो दांव बंद ! " “ मैं सौ दम्म दांव पर लगाता हूं। " " क्या सौ दम्म ? ” उस पुरुष ने आश्चर्य से आंखें फाड़ - फाड़कर सोम को देखा । “ पूरे सौ दम्म ”, सोम ने दम्मों से परिपूर्ण थैली निकालकर दिखाते हुए कहा - “ तो अभी दिखा और सौ दम्म ले । " " परन्तु रात है। " " तो क्या हुआ। " " राह अगम्य कानन में है । " " अरे मित्र , यह खड्ग है। फिर मेरे पास बाहर दो बढ़िया अश्व हैं । " " दम्म भी हैं , अश्व भी हैं , तब विलम्ब क्यों ? चल मित्र , अभी । ” " तो चल "