मण्डप में उपस्थित नहीं है और न कोई उसका प्रतिनिधि समर्थक ही है। राज्य एक क्षण भी राजा के बिना नहीं रह सकता । नया राजा उसका औरस पुत्र है । उसका कोई विरोध नहीं करता । अतः मैं घोषणा करता हूं कि वही अब इस यज्ञ का यजमान है । तो महाराज विदूडभ, मैं तुम्हें यज्ञपूत करता हूं । कहो तुम – मैं इस राजसूय महानुष्ठान के लिए आपको वरण करता है। " “ मैं वरण करता हूं। ”विद्डभ ने तीन बार कहकर आचार्य का वरण किया । आचार्य ने घोषणा की - “ हे विश्वदेवा , सुनो ! हे ब्राह्मणो, सुनो ! हे मनुष्यो , सुनो । हम वरण किए गए सोलहों ऋत्विक विधिवत् अब इस राजसूय के महत् अनुष्ठान में देव कोसलपति विदूडभ का अभिषेक करते हैं । " आचार्य के संकेत से बहुत शंख एक साथ बज उठे । अभिषेक - अनुष्ठान प्रारम्भ हो गया । राजा लोग अपने हाथों में अभिषेक सामग्री से भरे पात्रों को विधिपूर्वक सजाकर पद-मर्यादा के क्रम से खड़े हो गए । रेणु विदेहराज ने श्वेत रंग का काम्बोज अश्व भेंट किया। अस्सक के राजा ब्रह्मदत्त ने स्वर्णमण्डित रथ ला उपस्थित किया । कलिंगराज सत्तभू ने रथ पर ध्वजारोपण किया । मगध सम्राट का भेजा हुआ रत्नमाल और मणिग्रथित उष्णीष मागध अमात्य ने राजा को धारण कराया। शाक्यों के गण प्रतिनिधि ने रथ में स्वर्णमण्डित जुआ जोड़ा । किसी ने मणिजटित जूते , किसी ने तरसक , किसी ने खड्ग राजा को धारण कराया । किसी ने गन्धमाल्य दिया । अब अजित केसकम्बली, कणाद , औलूक , वैशम्पायन पैल , स्कन्द कात्यायन , जैमिनी और शौनक ने राज्याभिषेक - विधि का प्रारम्भ किया । वेद -पाठ होने लगा । कुरुसंघ राज्य के श्रुत सोम और धनञ्जय श्वेत छत्र लेकर राजा के पीछे खड़े हुए । सौवीर भरत , विदेहराज रेणु , काशिराज , धत्तरथ , सेतव्य हिरण्यनाभ राजा पर चंवर डुलाने लगे । अठारह दक्षिणावर्त शंख फूंके गए। फिर उन्हीं शंखों में भर - भरकर सत्रह तीर्थों का जल और एक सूर्यकिरणों का जल , कुल अठारह प्रकार के जल , जो यूप की उत्तर दिशा में उदुम्बर - पात्रों में पृथक्- पृथक् रखे हुए थे, उनसे राजा का अभिषेक किया जाने लगा । पहले सरस्वती नदी के जल से , फिर बहाववाली नदी के जल से , फिर प्रतिलोम जल से, मार्गान्तर के जल से , समुद्र -जल से , भंवर के जल से , स्थिर जल से , धूप की वर्षा के जल से , तालाब के जल से , कुएं के जल से, ओस के जल से , फिर तीर्थों के विविध जलों से , भिन्न -भिन्न मन्त्र पढ़कर राजा का अभिषेक किया गया । अब सोम - पान होकर गवलम्भन हुआ। फिर बारह ‘पार्थहोम किए गए और नये महाराज को घृतप्लुत वस्त्र पहनाया गया । उस पर यज्ञ -पात्रों के चित्र सुई से कढ़े हुए थे । उस पर बिना रंगी ऊन का पाण्डव कम्बल और उसके ऊपर लम्बा चोगा पहनाया गया । ऋषियों ने पुकारा – “ यह क्षत्र की नाभि है ? " अध्वर्यु ने धनुष चढ़ाकर कहा - “ यह इन्द्र का वृत्रहन्ता भुज है। " और उसके दोनों छोर मन्त्रपूत करके महाराज को दिया । फिर उसने मन्त्रपूत तीन बाण राजा को दिए और यज्ञ में बैठे हुए पंडक के मुंह में तांबा किया । अब दिग्विजय का होम - पाठ हुआ । यजमान की बांह पकड़कर उसे अध्वर्युने चारों ओर घुमाया । प्रति दिशा में कुछ पैंड चलाकर कहा
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