पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/३४६

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98. अपार्थिव नृत्य युवक ने समूचा भुना हुआ हरिण कंधे पर लादकर ज्योंही कुटी में प्रवेश किया , वह वहां का दृश्य देखकर आश्चर्यचकित जड़वत् रह गया । उसने देखा – पारिजात - कुसुम - गुच्छ की भांति शोभाधारिणी एक अनिंद्य सुन्दरी दिव्यांगना कुटी में आत्म -विभोर होकर असाधारण नृत्य कर रही है । उसके सुचिक्कण, घने पादचुम्बी केश- कुन्तल मृदु पवन में मोहक रूप में फैल रहे हैं । स्वर्ण -मृणाल - सी कोमल भुज - लताएं सर्पिणी की भांति वायु में लहरा रही हैं । कोमल कदली -स्तम्भ - सी जंघाएं व्यवस्थित रूप में गतिमान होकर पीन नितम्बों पर आघात - सा कर कटि-प्रदेश को ऐसी हिलोर दे रही हैं जैसे समुद्र में ज्वार आया हो । कुन्दकली - सा धवल गात , चन्द्रकिरण - सी उज्ज्वल छवि और मुक्त नक्षत्र - सा दीप्तिमान् मुखमण्डल - सब कुछ अलौकिक था । क्षण- भर में ही युवक विवश हो गया । उसने आखेट एक ओर फेंककर वीणा की ओर पद बढ़ाया । अम्बपाली के पदक्षेप के साथ वीणा आप ही ध्वनित हो रही थी । युवक ने वीणा उठा ली , उस पर उंगली का आघात किया , नृत्य मुखरित हो उठा । ___ अब तो जैसे ज्वालामुखी ने ज्वलित , द्रवित सत्त्व भूगर्भ से पृथ्वी पर उंडेलने प्रारम्भ कर दिए हों , जैसे भूचाल आ गया हो , पृथ्वी डगमग करने लगी हो । वीणा की झंकृति पर क्षण- भर के लिए देवी अम्बपाली सावधान होतीं और फिर भाव- समुद्र में डूब जातीं । उसी प्रकार देवी सम पर ज्योंही पदक्षेप करतीं और निमिषमात्र को युवक की अंगली सम पर आकर तार पर विराम लेती , तो वह निमिष - भर को होश में आ जाता । धीरे - धीरे दोनों ही बाह्यज्ञान - शून्य हो गए। सुदूर नील गगन में टिमटिमाते नक्षत्रों की साक्षी में , उस गहन वन के एकान्त कक्ष में ये दोनों ही कलाकार पृथ्वी पर दिव्य कला को मूर्तिमती करते रहे- करते ही रहे । उनके पार्थिव शरीर जैसे उनसे पृथक् हो गए। उनका पार्थिव ज्ञान लोप हो गया , जैसे वे दोनों कलाकार पृथ्वी के प्रलय हो जाने के बाद समुद्रों के भस्म हो जाने पर , सचराचर वसुन्धरा के शेष - लीन हो जाने पर , वायु की लहरों पर तैरते हुए , ऊपर आकाश में उठते चले गए हों और वहां पहुंच गए हों जहां भूः नहीं, भुवः नहीं , स्वः नहीं , पृथ्वी नहीं, आकाश नहीं, सृष्टि नहीं , सृष्टि का बन्धन नहीं , जन्म नहीं , मरण नहीं, एक नहीं , अनेक नहीं , कुछ नहीं , कुछ नहीं!