नन्दिनी ने हंसकर मद्यपात्र युवक के हाथ में दे दिया और हंसते हुए कहा - “ समझ गई प्रिय, आप छद्म-नाम धारण करना चाहते हैं , किन्तु इसका कारण ? " __ “ यदि यही सत्य है तो छद्म- नाम धारण करने का कारण भी ऐसा नाम धारण करने वाला भलीभांति जानता है, ” उसने मद्य पीते हुए कहा । " ओह, तो मित्र , तुम कोरे तार्किक ही नहीं हो ? " " नहीं प्रिये , मैं तुम्हारा आतुर प्रेमी भी हूं " उसने खाली पात्र देते हुए कहा । नन्दिनी जोर से हंस दी और पात्र फिर से भरते हुए बोली - “ सत्य है मित्र, तुम्हारे प्रेम का सब रहस्य तुम्हारी आंखों और सतर्क वाणी में दीख रहा है। " उसने दूसरा चषक बढ़ाया । चषक लेकर हंसते हुए युवक ने कहा - “ इसी से प्रिये, तुम चषक पर चषक देकर मेरे नेत्रों का रहस्य और वाणी की सतर्कता को धो बहाना चाहती हो । ” “ नहीं भद्र, मेरी यह सामर्थ्य नहीं, परन्तु गणिका के आवास में आकर भी पान करने में इतना सावधान पुरुष वैशाली ही में देखा। " “ मगध में नहीं देखा प्रिये ? " उसने गटागट पीकर चषक नन्दिनी को दिया । नन्दिनी विचलित हुई। रिक्त चषक लेकर क्षण - भर उसने युवक की ओर घूरकर देखा । युवक ने हंसकर कहा - “ यदि कुछ असंयत हो उठा होऊं तो यह तुम्हारे मद्य का दोष है; किन्तु क्या तुम्हें मैंने असन्तुष्ट कर दिया भद्रे ? " " नहीं भद्र, किन्तु मैं मगध कभी नहीं गई। " " ओह, तो निश्चय ही मुझे भ्रम हुआ , नीचे तुम्हारे प्रहरियों के नोकदार शिर - स्त्राण मागध व्रात्यों के समान थे इसी से । " उसने मुस्कराकर तीखी दृष्टि से युवती को देखा । युवती क्षण - भर को चंचल हुई, फिर हंसती हुई बोली - “ हां , उनमें एक - दो मागध हैं , किन्तु । ” बीच ही में उस युवक ने हंसते हुए कहा - “ समझ गया प्रिये, उन्हीं में से किसी एक ने राजगृह के चतुर शिल्पी का बना यह कुण्डल तुम्हें भेंट किया होगा! ” । नन्दिनी के होठ सूख गए । हठात् उसके दोनों हाथ अपने कानों में लटकते हुए हीरे के बहुमूल्य कुण्डलों की ओर उठ गए । उसने हाथों से कुण्डल ढांप लिए । युवक ठठाकर हंस पड़ा । हाथ बढ़ाकर उसने मद्यपात्र उठाकर आकण्ठ भरा और नन्दिनी की ओर बढ़ाकर कहा - “पियो प्रिये, इस नगण्य नागरिक के लिए एक चषक । ” । नन्दिनी हंस दी । पात्र हाथ में लेकर उसने युवक पर बंकिम कटाक्षपात किया, फिर कहा - “ बड़े धूर्त हो भद्र । ” और मद्य पी गई । युवक ने हाथ बढ़ाकर जूठा पात्र लेते हुए कहा “ आप्यायित हुआ प्रिय ! " " क्या गाली खाकर ? " । " नहीं पान देकर । " नन्दिनी ने दूसरा चषक लेकर उसमें मद्य भरा और युवक की ओर बढ़ाकर कहा - “ अब और भी आप्यायित होओ प्रिय! ” । “नागपत्नी की आज्ञा शिरोधार्य, ” उसने पात्र पीकर कहा - “ तो प्रिये, अब मैं
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