पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/३७६

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चला । " “ किन्तु क्या मैं तुम्हारा और कुछ प्रिय नहीं कर सकती ? " " क्यों नहीं प्रिये , इस चिरदास को स्मरण रखकर ! " युवक उठ खड़ा हुआ । नन्दिनी ने ताम्बूल - दान किया , गन्धलेपन किया और फिर उसके उत्तरीय के छोर को पकड़कर कहा - "फिर कब आओगे भद्र ? " “किसी भी दिन , नाग -दर्शन करने ! ” । युवक हंसकर चल दिया । नन्दिनी अवाक् खड़ी रह गई । युवक ने बाहर आ दास को एक स्वर्ण दिया और वह अश्व पर सवार हो तेज़ी से चल दिया । नन्दिनी गवाक्ष में से उसका जाना देखती रही । वह कुछ देर चुपचाप सोचती रही। फिर उसने दासी को बुलाकर कहा- “मैं अभी नन्दन साह को देखना चाहती हूं। " “किन्तु भद्रे, रात तीन पहर बीत रही है , नन्दन साहु को उसके घर जाकर इस समय जगाने में बहुत खटपट होगी। ” ___ “ नहीं - नहीं , तू पुष्करिणी तीर पर जाकर वही गीत गा जो तूने सीखा है । साहु के घर के पीछे गवाक्ष है, वहीं वह सोता है। तेरा गीत सुनते ही वह यहां आएगा और कुछ करना नहीं होगा। __ “किन्तु भद्रे, यदि प्रहरी पकड़ लें ? " __ " तो कहना भिखारिणी हं . भिक्षा दो । इच्छा हो तो वे भी गीत सनें । " दासी ने फिर कुछ नहीं कहा। वह चुपचाप गुप्त द्वार से बाहर चली गई । नन्दिनी ने अपने भीतर कक्ष में जा यत्न से एक भोजपत्र पर कुछ पंक्तियां लिखीं और उसे मोड़कर उस पर गीली मिट्टी की मुहर कर दी । फिर वह चिन्तित होकर साहु के आने की प्रतीक्षा करने लगी।