उसी उरुबेला तीर्थ में उसी निरंजना नदी के किनारे एक विशाल वट वृक्ष के नीचे एक तरुण तपस्वी समाधिस्थ बैठे थे। अनाहार और कष्ट सहने से उनका शरीर कृश हो गया था, फिर भी उनकी कान्ति तप्त स्वर्ण के समान थी। उनके अंग पर कोई वस्त्र न था, केवल एक कौपीन कमर में बंधी थी। उनकी देह, नेत्र और श्वास तक अचल थी। ये कपिलवस्तु के राजकुमार शाक्यपुत्र गौतम थे, जिन्होंने अक्षय आनन्द की खोज में लोकोत्तर सुख-साधन त्याग दिए थे।
तरुण तपस्वी ने नेत्र खोले, सामने पीपल के वृक्ष के नीचे कई बालक बकरी चरा रहे थे। उनकी काली-लाल-सफेद बकरियां हरे-हरे मैदानों में उछल-कूद कर रही थीं। गौतम ने स्थिर दृष्टि से इन सबको देखा। बड़ा मनोहर प्रभात था, बैसाखी पूर्णिमा के दूसरे दिन का उदय था। स्वच्छाकाश से प्रभात-सूर्य की सुनहरी किरणें हरे-भरे खेतों पर शोभा-विस्तार कर रही थीं, गौतम को विश्व आशा और आनन्द से ओतप्रोत ज्ञात हुआ। उन्होंने अनुभव किया कि उनके हृदय में एक प्रकाश की किरण उदय हुई है और वह सारे विश्व को ओतप्रोत कर रही है। विश्व उससे उज्ज्वल, आलोकित और पूत हो रहा है, उस आलोक में भयव्याधि नहीं है, अमरत्व है, मुक्ति है, आनन्द है। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि मैं बुद्ध हूं। तथागत हूं। अर्हत हूं।
उसी समय उत्कल देश से दो बंजारे उधर आ निकले। वे इस तरुण कृश तपस्वी को देखकर कहने लगे––"भन्ते, यह मट्ठा और मधुगोलक हैं, हम इनसे आपका सत्कार करना चाहते हैं, इन्हें ग्रहण कीजिए! गौतम ने स्निग्ध दृष्टि उन पर डाली और कहा––"मैं तथागत हूं, बुद्ध हूं, मैं बिना पात्र के भिक्षा ग्रहण नहीं कर सकता।" तब उन्होंने एक पत्थर के पात्र में उन्हें मट्ठा और मधुगोलक दिए। जब गौतम उन्हें खा चुके तो बंजारों ने कहा––"भन्ते, मेरा नाम भिल्लक और इसका तपस्सू है। आज से हम दोनों आपकी तथा धर्म की शरण हैं।"
संसार में वही दोनों दो वचनों से प्रथम उपासक हुए।
उनके जाने पर गौतम बहुत देर तक उस वट वृक्ष की ओर ममत्व से देखते रहे। फिर उसी आसन पर बैठकर उन्होंने प्रतीत्य समुत्पाद का अनुलोम और प्रतिलोम मनन किया। अविद्या के कारण संस्कार होता है, संस्कार के कारण विज्ञान होता है, विज्ञान के कारण नाम-रूप और नाम-रूप के कारण छः आयतन होते हैं। छः आयतनों के कारण स्पर्श, स्पर्श के कारण वेदना, वेदना के कारण तृष्णा, तृष्णा के कारण उपादान, उपादान के कारण भव, भव के कारण जाति, जाति के कारण जरा, मरण, शोक, दुःख, चित्त-विकार और खेद उत्पन्न होता है। इस प्रकार संसार की उत्पत्ति है। अविद्या के विनाश से संस्कार का, संस्कार-नाश से विज्ञान का, विज्ञान-नाश से नाम-रूप का और नाम-रूप के नाश से छः आयतनों का नाश होता है। छः आयतनों के नाश से स्पर्श का नाश होता है। स्पर्श के नाश से