पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/४२१

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करें । " सूर्यमल्ल ने बिना कुछ बोले खड्ग उठाया । अम्बपाली ने अब आगन्तुक के कण्ठ स्वर को भली- भांति पहचान लिया । उन्होंने आगे बढ़कर सूर्यमल्ल का हाथ पकड़कर कहा _ “ठहरो भद्र, पहले मद्य दूंगी । " उन्होंने अपने हाथों मद्यपात्र भरकर आगे बढ़कर दस्यु को दिया । मद्य पीकर उसने पात्र आधार पर रख दिया और कहा - “ सुप्रतिष्ठित हुआ देवी ! " “मैं सुप्रतिष्ठित हुई भन्ते ! " सूर्यमल्ल ने आगे बढ़कर कहा - “बहुत हुआ देवी अम्बपाली , अब आप तनिक हट जाइए । " " परन्तु मेरे आवास में आज रक्तपात नहीं होगा, ” उन्होंने आगे बढ़कर कहा । दस्यु ने कहा - “ देवी अम्बपाली ! आज सबकी इच्छा पूरी होने दो । मित्र सूर्यमल्ल , तुम्हारी पारी क्षण - भर बाद आएगी । अभी युवराज स्वर्णसेन , अपनी वह चिरभिलषित इच्छा पूरी करें , जो शत - सहस्र मद्यपात्रों से भी पूर्ण होने वाली नहीं थी । ” फिर थोड़ा आगे बढ़कर कहा - “ मित्र स्वर्णसेन , यह सेवक दस्यु बलभद्र उपस्थित है । खड़े हो जाओ, हाथ का मद्यपात्र रख दो । वह सम्मुख खड्ग है, उठा लो और झटपट चेष्टा करके देखो , कि अभिलाषा पूर्ति कर सकते हो या नहीं ; क्योंकि जब मैं अपनी अभिलाषा पूर्ति करने में जुट जाऊंगा, तो फिर युवराज की मन में रह जाएगी । अवसर नहीं मिलेगा । " कक्ष में उपस्थित स्त्री - पुरुष स्तब्ध आतंकित खड़े थे। केवल अम्बपाली का रोम - रोम पुलकित हो रहा था । उन्होंने दस्यु को और दस्यु ने उनको चुराई आंखों में देखकर मन - ही मन हंस दिया । दो पग आगे बढ़कर खड्ग को हवा में ऊंचा उठाते हुए दस्यु ने कहा - " उठो युवराज, मुझे अभी बहुत काम है, आज देवी अम्बपाली का जन्म -नक्षत्र है । आज प्रत्येक नागरिक की मनोभिलाषा पूरी होनी चाहिए। " युवराज अभी नशे में झूम रहे थे। अब उन्होंने हाथ का मद्यपात्र फेंक लपककर एक भारी बर्छा भीत से उठा लिया । अन्य लिच्छवि तरुणों ने भी खड्ग खींच लिए । दस्यु ने उनकी ओर देखकर कहा - “मित्रो, पहले युवराज। ” युवराज ने इसी समय प्रबल वेग से बर्खाफेंका। दस्यु ने उछलकर एक खम्भे की आड़ ले ली । बर्छा खम्भे से टकराकर टूट गया । दस्यु ने आगे बढ़कर युवराज स्वर्णसेन के कण्ठ में हाथ डालकर उन्हें आगे खींच लिया और कण्ठ पर खड्ग रखकर कहा - “ अब इस खड्ग से क्या मैं तुम्हारा सिर काट लूं युवराज ? ” “ नहीं -नहीं, इस समय यहां ऐसा नहीं होना चाहिए । " अम्बपाली ने कातर कण्ठ से कहा। दस्यु ने हंसकर कहा - “ यही मेरी भी इच्छा है, परन्तु इसके लिए घुटने टेककर युवराज को प्राण-भिक्षा मांगनी होगी। स्वर्णसेन ने सूखे होंठ चाटकर कहा - “मेरा खड्ग कहां है ? " “ यह है मित्र , ” दस्यु ने खड्ग उठाकर युवराज परफेंक दिया । युवराज ने भीम वेग से आगे बढ़कर दस्यु पर खड्ग का प्रहार किया , परन्तु नशे के कारण वार पृथ्वी पर पड़ा।