आवरण उघाड़ दिया । सबने देखा कि नीचे प्रांगण में असंख्य नरमुण्ड खड़े हैं । सबकी पीठ पर एक - एक गठरी है । बलभद्र ने पुकारकर कहा- “मित्रो, तुमने देवी अम्बपाली के आवास से क्या लूटा है ? " " हमने केवल अन्न लिया है भन्ते! " अम्बपाली ने कहा - “ मेरे आवास में शत - कोटि स्वर्णभार और अनगिनत रत्न चहबच्चों और खत्तों में भरे पड़े हैं । सबके द्वार उन्मुक्त हैं , तुम लूट क्यों नहीं लेते प्रियजनो ? ” “ नहीं - नहीं देवी , हम ऐसे दस्यु नहीं हैं । हम भूखे ग्रामीण कृषक हैं । अंतरायण के अधिकारियों ने सेना भेजकर हमसे बलि ग्रहण कर ली थी , वे हमारी सारी फसल उठाकर ले गए हैं , हमारे बच्चे भूखों मर रहे थे। देवी की जय रहे! अब वे पेट भरकर खाएंगे। " दस्यु ने कहा - “ देवी अम्बपाली, यह गणतन्त्र भी उसी भांति गण - शोषक है, जैसे साम्राज्य । यहां भी दास हैं , दरिद्र हैं और ये निकम्मे मद्यप स्त्रैण सामन्तपुत्र हैं । ये सेट्टिपुत्र हैं । आज ये कंकड़ - पत्थर की भांति अरब - खरब के रत्न - मणि अपने शरीर पर लादकर इन भूखे-नंगे कृषकों को लूटने को सेना भेजकर यहां मदमत्त होने आए हैं । ये सभी गणरक्षक तो यहां हैं , जो निर्लज्ज की भांति वीर - दर्प करते हैं । देवी ! मैं ये हीरे - मोती इन्हीं कृषकों को लौटा देना चाहता हूं , जिनके पेट का अन्न छीनकर ये मोल लिये गए हैं । इन्हें फिर से बेचकर ये अन्न मोल लेकर अपने बच्चों को खिलाएंगे और वस्त्र पहनाएंगे । " दस्यु की आंखों से आग की झरें निकल रही थीं । इसी समय मदलेखा धीरे- धीरे आगे बढ़ी । उसने अपने दोनों हाथ आगे बढ़ा दिए । उनमें उसके दो - तीन आभरण थे। मृदु मन्द स्वर से कहा - “ ये मेरे हैं भन्ते , इन्हें लेकर मुझे भी अनुग्रहीत कीजिए! ” । कठोर दस्य द्रवित हआ । उसने आशीर्वाद का वरद हस्त उस क्रीता दासी के मस्तक पर रखा और फिर कहा - “मित्रो , अब तुम शान्त भाव से अपने - अपने स्थान को चले जाओ। " सबके चले जाने पर दस्यु ने कहा - “ आप सब जो जहां हैं , घड़ी - भर वहीं रहें ! " सबने चुपचाप दस्यु की आज्ञा का पालन किया । दस्यु - समुदाय वहां से उसी प्रकार लोप हो गया , जिस प्रकार प्रकट हुआ था ।
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