पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/४३५

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विचार बदल गए । उसने हंसकर कहा - “ यह तो बात ही कुछ और है भन्ते ! परन्तु दु: ख है कि मेरे पास पान्थागार में स्थान नहीं है, फिर भी आप एक प्रतिष्ठित सज्जन हैं , मैं आपकी कुछ सहायता कर सकता हूं। " “किस प्रकार मित्र ! " “मेरा एक मित्र है, वह सम्राट का प्रतीहार है। यहीं निकट ही उसका घर है, घर बड़ा और सुसज्जित है । सौभाग्य से वह बड़ा लालची है । ऐसे दस सुवर्ण पाकर तो वह अपने रहने का सजा - धजा कक्ष ही आपको अर्पण कर सकता है। इतने बड़े घर में वह और उसकी पत्नी केवल दो ही व्यक्ति रहते हैं । ” । " तो मित्र यही कर , सुवर्ण की चिन्ता न कर । " अध्यक्ष उस प्रतीहार को बुला लाया । वह एक ढीला -ढाला मोटा वस्त्र पहने था । दुबला-पतला शरीर , मिचमिची आंखें , गंजी खोपड़ी , पतली गर्दन । उसने आकर सम्मान पूर्वक युवक का अभिवादन किया । युवक ने पूछा - “ यही वह व्यक्ति है ? " “ यही है भन्ते । " " तब यह स्वर्ण है। ” उसने दस टुकड़े उसकी हथेली पर रखकर कहा - “ शेष तुम्हारा साथी समझा देगा । " ____ “मैंने समझ लिया भन्ते , खूब समझ लिया , आइए आप । ” इतना कहकर अतिविनीत भाव से पान्थ को अपने साथ ले चला । प्रतीहार का घर छोटा था , परन्तु उसमें सब सुविधाएं जयराज के अनुकूल थीं । वहां वह नि : शंक आराम से टिक गए। यहां उन्हें एक सहायता और मिल गई । प्रतीहार ने उन्हें एक कृषक तरुण कहीं से ला दिया । यह बालक अठारह वर्ष का एक उत्साही और स्वस्थ नवयुवक था । जयराज ने उसे एक टाघन खरीद दिया और खूब खिला-पिलाकर परचा लिया । वह कृषक बालक छाया की भांति जयराज के साथ रहकर उनकी सेवा तथा आज्ञापालन करने लगा ।